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WhatsApp यूनिवर्सिटी’ के रिसर्च पर आ रहा जनसंख्या रोकने का कानून? | Aajkal Rajasthan ga('create', "UA-121947415-2", { 'cookieDomain': 'aajkalrajasthan.com','allowLinker': true } ); ga('linker:autoLink', ['aajkalrajasthan.com/amp']);

WhatsApp यूनिवर्सिटी’ के रिसर्च पर आ रहा जनसंख्या रोकने का कानून?

1909 में यू एन मुखर्जी ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था हिंदूज: अ डाइंग रेस. नाम से स्पष्ट है कि किताब में भारत में हिंदुओं के बारे में डरावनी भविष्यवाणी की गई थी.

किताब खूब चली और इसके कई रिप्रिंट हुए और उस समय के बंगाल के हिंदू संगठनों ने इसे खूब प्रचारित भी किया. लेकिन उसके बाद से पिछले 111 सालों में डरावनी भविष्यवाणी सही साबित नहीं हुई है. इन सालों में हिंदुओं की आबादी देश में करीब 5 गुना बढ़कर 20 करोड़ से करीब 100 करोड़ हो गई है. ताज्जुब की बात है कि इस तथाकथित डाइंग रेस को बचाने के लिए, ताकि भारत पर दूसरे धर्म के मानने वालों का कब्जा ना हो जाए, अब एक कानून की बात हो रही है, जिससे देश के अलग-अलग समुदायों की जनसंख्या को कंट्रोल किया जाए.

वाकई में मुसलमानों की आबादी बेकाबू है?

इशारा शायद मुस्लिम आबादी को कंट्रोल करने का है और इस तरह के कई मैसेज तेजी से फैलने भी लगे हैं. लेकिन क्या मुसलमानों की देश में आबादी वाकई बेकाबू है? आंकड़े तो ऐसा नहीं बताते हैं. कुछ चुनिंदा आंकड़ों पर गौर कीजिए: 2001 से 2011 के बीच जहां हिंदुओं की जनसंख्या विकास दर में पिछले दशक के मुकाबले 3 परसेंटेज प्वाइंट्स की कमी आई, वहीं मुस्लिम जनसंख्या विकास दर में 5 परसेंटेज प्वाइंट्स की कमी आई.

इससे ठीक पहले वाले दशक (1991-2001) में जहां हिंदुओं के जनसंख्या विकास दर में 2.7 परसेंटेज प्वाइंट्स की कमी आई वहीं मुस्लिम जनसंख्या विकास दर में 3.3 परसेंटेज प्वाइंट्स की कमी आई.

मतलब पिछले दो दशकों से मुसलमानों की आबादी की विकास दर ज्यादा तेजी से नीचे आ रही है. सारे संकेत बताते हैं कि आगे भी ये ट्रेंड जारी रहेगा. हां, ये बात सच है कि जहां हिंदुओं की जनसंख्या विकास दर अस्सी के दशक से ही नीचे आनी शुरू हुई थी, मुस्लिमों में यह ट्रेंड दस साल बाद नब्बे के दशक से शुरू हुआ.

जनसंख्या घटने-बढ़ने का संबंध धर्म से नहीं 

2001 से 2011 के बीच पूरे दक्षिण भारत में मुस्लिम आबादी की सालाना औसत विकास दर 1.6 परसेंट रही जो पूरे देश के 1.9 परसेंट औसत विकास दर से काफी कम है. केरल और तमिलनाडु में ये दर इससे भी कहीं नीचे है. इसे क्या कहेंगे? हमें पता है कि केरल और तमिलनाडु में सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर हैं, जिसकी वजह से वहां जनसंख्या अपने आप कंट्रोल में है और इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है. केरल के हिंदू उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदुओं से कम बच्चे पैदा करते हैं और यही बात मुस्लिम पर भी लागू होती है.देश में 8 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मुस्लिमों की आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. इनमें से चार में मुस्लिम आबादी की विकास दर राष्ट्रीय औसत के काफी कम है. और लक्षद्वीप में, जहां मुस्लिम आबादी 90 परसेंट से ज्यादा है, तो विकास दर सबसे कम है. इसका मतलब है कि जहां आबादी ठीक ठाक है वहां जनसंख्या विकास दर कम है

बड़े राज्यों में असम, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम आबादी विकास दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश में तो हिंदुओं की भी जनसंख्या विकास दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा हैं. क्या इसका मतलब साफ नहीं है कि जनसंख्या विकास दर अशिक्षा और खराब आर्थिक हालात पर ज्यादा निर्भर हैं? धर्म का शायद इससे कोई लेना-देना नहीं है? इसके बावजूद मिथक चलता जा रहा है.

ज्यादा आबादी वाले राज्यों की सुधर रही हालत

पिछले दशक (2001-2011) से बिहार और उत्तर प्रदेश से भी अच्छी खबरें आनी शुरू हो गई हैं. मैंने क्विंट में ही लिखा था कि पिछले दशक में उत्तर प्रदेश के दशकीय जनसंख्या विकास दर में पिछले दशक के मुकाबले 6 परसेंटेज प्वाइंट्स की कमी आई और बिहार में करीब 3.5 परसेंटेज प्वाइंट्स की. इन दोनों राज्यों में ज्यादा बदलाव 2005 के बाद देखा गया है. इसीलिए उम्मीद बंधी है कि मैजूदा दशक में भी उसका असर दिखेगा. ये बदलाव इतने बड़े हैं कि डेमोग्राफर मानने लगे हैं कि इन दोनों राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण पहले के अनुमान से जल्दी ही हो जाएगा.न रहे कि भारत दुनिया का सबसे पहला देश बना था, जहां 1952 में जनसंख्या नियंत्रण की पॉलिसी बनी थी. अस्सी के दशक के बाद इसका असर दिखना शुरू हुआ था. और अब हम रिप्लेसमेंट पॉपुलेशन के स्तर को जल्द ही हासिल करने वाले हैं. ऐसे में नए कानून की जरूरत है क्या? और वो भी WhatsApp university के रिसर्च से प्रेरित होकर.

यह बात सही है कि अपने देश में जनसंख्या ऐसे स्तर पर है, जहां सबकुछ मैनेज करना मुश्किल हो रहा है. जिस यंग आबादी को हम अपने लिए शानदार डिविडेंड बना सकते थे. उसको हमने अपने हाल पर छोड़ दिया. जहां ध्यान महिला की साक्षरता और उनके सशक्तिकरण पर होना चाहिए था वहां WhatsApp university के फेक मैसेज पर झूठा प्रचार में समय जाया किया जा रहा है. जनसंख्या कानून बनाना ज्यादा जरूरी है या उन परिस्थियों को समझना जिनको अपनाकर केरल और तमिलनाडु ने जनसंख्या को कंट्रोल कर लिया है? अगर वैसी परिस्थिति देश के दूसरे राज्यों में भी बनती है तो किसी कानून की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. लेकिन फिर ‘डाइंग रेस’ जैसे लोगों को भ्रमित करने वाले WhatsApp मैसेज भी नहीं बन पाएंगे.

यह भी पढ़े : कौन है देशद्रोही,कौन नहीं,नाम और काम देखिए और फैसला कीजिए

Thought of Nation राष्ट्र के विचार
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