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उत्तर प्रदेश में क्या कुछ अलग हो सकता है 2022 के चुनाव में?

2024 से पहले उत्तर प्रदेश 2022 विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh 2022 assembly elections) को काफी अहम माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव एक तरह से 2024 से पहले यह तय कर देंगे कि बीजेपी की तीसरी बार केंद्र में सरकार बनेगी या नहीं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के नेतृत्व में बीजेपी 2014 के बाद से लगातार अधिकतर चुनाव जीतती आ रही है. इस बीच कुछ राज्यों के चुनाव हारी भी है. लेकिन जोड़-तोड़ कि राजनीति के दम पर मध्य प्रदेश और कर्नाटक, गोवा जैसे राज्यों में बीजेपी ने फिर से सरकार बना ली. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद देखा जाए तो 2022 में उत्तर प्रदेश के अंदर बीजेपी के असली अग्नि परीक्षा होनी है. उत्तर प्रदेश 2022 विधानसभा चुनाव को लेकर तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी अपनी रणनीति के हिसाब से तैयारियां शुरू कर दी हैं.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए माना जा रहा था कि 2017 विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन भी दोहरा नहीं पाएगी. तमाम राजनीतिक विश्लेषक और उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सरकार चलाने वाली तमाम विपक्षी पार्टियां कांग्रेस को हल्के में ले रही थी. मीडिया भी कॉन्ग्रेस को तवज्जो नहीं दे रही थी. कांग्रेस के बारे में कहा जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए कुछ भी नहीं है, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस खत्म हो चुकी है. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) बीजेपी के सामने उत्तर प्रदेश में अपने आप को मुख्य प्रतिद्वंदी साबित करने में लगे हुए थे.
वहीं दूसरी तरफ मायावती (Mayawati) ने भी लखनऊ में रैली करके यह जताने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश की जनता एक बार फिर से उन्हें मौका देगी, मीडिया ने भी मायावती की रैली को खूब तवज्जो दी. उत्तर प्रदेश के अंदर अपने आप को मुख्य विपक्षी दल कहने वाली पार्टियों ने पिछले साडे 4 साल में ऐसा कुछ भी किया नहीं है जिससे यह माना जाए कि बीजेपी की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जनता इनके साथ एकजुटता दिखाकर सरकार पलट देगी.
चाहे CAA का मामला हो या फिर एनआरसी का मायावती से लेकर अखिलेश यादव तक जनता का साथ देते हुए सड़कों पर दिखाई नहीं दिए. जबकि लंबे समय तक सरकार में रहे इन दलों का सड़कों पर संघर्ष करते हुए दिखाई देना चाहिए था. जिस कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में खत्म बताया जा रहा था, अगर बात उस कांग्रेस की की जाए तो पिछले 2 से 3 हफ्तों में तमाम राजनीतिक दलों, राजनीतिक विश्लेषकों के साथ-साथ मीडिया का भी नजरिया बदला है. लखीमपुर नरसंहार के खिलाफ जिस तरह से प्रियंका गांधी ने आक्रमक था दिखाई है, उससे उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश की जनता का नजरिया भी कांग्रेस के लिए बदला है.
यह कोई पहला मौका नहीं था जब प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) सड़कों पर संघर्ष करती हुई दिखाई दी और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि प्रियंका गांधी राजनीति कर रही हैं, चुनाव से ठीक पहले. क्योंकि इससे पहले भी सोनभद्र में आदिवासियों के नरसंहार के वक्त भी प्रियंका गांधी इसी तरह आक्रामक नजर आई थी. उस समय कोई उत्तर प्रदेश में चुनाव नहीं था. हाथरस का मामला हो या फिर उन्नाव का मामला हो प्रियंका गांधी जनता के लिए सरकार से लड़ती हुई दिखाई दी है. इससे पहले भी प्रियंका गांधी जनता के मुद्दों पर सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर कर लड़ाई लड़ती हुई दिखाई दी है और मीडिया में उन्हें कवरेज भी मिली है. लेकिन बाद में उन मुद्दों को भुला दिया गया. कांग्रेस द्वारा, प्रियंका गांधी द्वारा किए गए उस संघर्ष को भुला दिया गया.
लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है, उससे ठीक पहले प्रियंका गांधी ने बनारस में रैली करके विरोधी पार्टियों में खलबली मचा दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में प्रियंका गांधी ने जो हुंकार भरी है उसकी उम्मीद उत्तर प्रदेश की दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ साथ बीजेपी को भी नहीं रही होगी. मीडिया के बारे में कहा जाता है कि वह बीजेपी के एजेंडे पर काम कर रही है. लेकिन बीजेपी समर्थित मीडिया भी यह कहने को मजबूर हो गई है कि पिछले 6-7 साल में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस द्वारा की गई ऐसी रैली नहीं देखी.
जिन राज्यों में जिन पार्टियों की सरकारें होती हैं उनके बारे में कहा जाता है कि रैलियों में सरकारी खर्चे पर भीड़ बुलाई जाती है. इसके साथ-साथ प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां भी अगर होती हैं तो यह देखा जाता है कि सरकारी बसों से लोगों को भर के लाया जाता है, दूसरे प्रदेशों से भी लोगों को लाया जाता है और भीड़ दिखाई जाती है. लेकिन बीजेपी समर्थित मीडिया भी प्रियंका गांधी की रैली को लेकर यह कह रहा है कि भीड़ पैसों के दम पर बुलाई हुई नहीं थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में उस पार्टी की रैली में इस कदर पब्लिक का आना, जिस पार्टी के बारे में कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश में जनाधार बचा ही नहीं है, उत्तर प्रदेश में खत्म हो चुकी है, उत्तर प्रदेश में कोई पूछने वाला नहीं है, यह बताता है कि कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश की जनता का नजरिया बदल रहा है और यह सब कुछ हुआ है प्रियंका गांधी के नाम पर. लोग एक बार फिर से प्रियंका गांधी और गांधी परिवार के नाम पर उत्तर प्रदेश में एकजुट हो रहे हैं.
कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में गठबंधन करना चाहिए?
अखिलेश यादव लंबे समय से कह रहे हैं कि वह किसी भी बड़ी पार्टी से गठबंधन नहीं करेंगे. उत्तर प्रदेश की छोटी-छोटी पार्टियों से गठबंधन करेंगे और अखिलेश यादव यह मानकर चल रहे हैं कि बीजेपी को हराने के लिए जनता विकल्प के रूप में समाजवादी पार्टी को चुन लेगी, जैसे पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी. लेकिन प्रियंका गांधी की रैली और लखीमपुर की घटना के बाद प्रियंका गांधी के प्रति उत्तर प्रदेश की जनता का झुकाव देखकर अखिलेश यादव भी अब यह कह रहे हैं कि वह किसी भी पार्टी से गठबंधन को तैयार हैं, लेकिन शर्ते हमारी होंगी.
मतलब साफ है अब प्रियंका गांधी की सक्रियता और उत्तर प्रदेश की जनता का कांग्रेस के प्रति बदलते नजरिए को देखकर दूसरी पार्टियां अब कांग्रेस को हल्के में लेने के लिए तैयार नहीं है. तो क्या कांग्रेस को समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लेना चाहिए? या फिर किसी दूसरे दल से गठबंधन करना चाहिए जैसे कि बहुजन समाज पार्टी? आने वाले वक्त में कांग्रेस पार्टी गठबंधन करेगी या नहीं करेगी यह तो साफ हो जाएगा. लेकिन गठबंधन का नतीजा क्या हो सकता है उस पर बात की जा सकती है.
2017 में भी कांग्रेस ने अखिलेश यादव की पार्टी से गठबंधन किया था चुनाव प्रचार भी जोर शोर से शुरू हुआ था लेकिन यह गठबंधन पूरी तरीके से फेल हो गया था. एक तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा श्मशान और कब्रिस्तान जैसी बातें करके उत्तर प्रदेश के अंदर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की गई. बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं द्वारा उत्तर प्रदेश में हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान के नाम पर ध्रुवीकरण पैदा करके वोट मांगने की कोशिश की गई.
दूसरी तरफ कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तो कर लिया था और गठबंधन के तहत जहां समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार था वहां कांग्रेस के वोटरों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया. लेकिन इसके ठीक उलट जहां पर गठबंधन के तहत कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार थे वहां समाजवादी पार्टी के वोटरों ने कांग्रेस को वोट ना देकर अपना वोट बीजेपी को दिया, ऐसी भी पुख्ता खबरें 2017 के विधानसभा चुनाव में निकल कर सामने आई थी.
तथ्य यही है कि जो समाजवादी पार्टी के समर्थक हैं वह गठबंधन के तहत भी ईमानदारी के साथ पार्टी की गठबंधन नीतियों का पालन करते हुए गठबंधन पार्टनर को मजबूत करने के लिए उसे वोट नहीं देते और इनकी एक हकीकत यह भी है कि विधानसभा चुनाव में भले ही यह अपने पसंदीदा नेता अखिलेश यादव को वोट दे दे, जहां उनका उम्मीदवार हो, लेकिन लोकसभा चुनाव में केंद्र में सरकार चुनते वक्त यह बीजेपी को वोट देते हैं.
कांग्रेस अगर 2022 के विधानसभा चुनाव में भी उत्तर प्रदेश में गठबंधन करती है समाजवादी पार्टी से तो प्रियंका गांधी की तमाम मेहनत और कोशिशों पर पानी फिरना तय है. क्योंकि गठबंधन होगा तो अधिक से अधिक सीटों पर समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ेगी और जो सीटें कांग्रेस को मिलेंगी वहां पर समाजवादी पार्टी के वोटर कांग्रेस का समर्थन करेंगे नहीं. जिसका नतीजा यह होगा कि उत्तर प्रदेश में लगातार सड़कों पर संघर्ष करने के बावजूद कांग्रेस खड़ी नहीं हो पाएगी.
कांग्रेस को एकला चलो की नीति पर उत्तर प्रदेश में चलना होगा जनता का झुकाव कांग्रेस की तरफ है और उत्तर प्रदेश के अधिकतर कांग्रेस के कार्यकर्ता और वोटर भी यही चाहते हैं कि कांग्रेस समाजवादी पार्टी से गठबंधन ना करें. कांग्रेस अकेले चुनाव मैदान में उतरे जिससे जनता बीजेपी को ना चुनकर कांग्रेस को वोट दें. क्योंकि समाजवादी पार्टी का इतिहास भी कुछ अच्छा नहीं रहा है. बीजेपी में अगर अपराध चरम पर है तो समाजवादी पार्टी की सरकार को भी गुंडाराज कहा जाता था, उत्तर प्रदेश की घटनाएं उस समय की गवाह हैं.
अगर कांग्रेस समाजवादी पार्टी से गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरती है तो जो न्यूट्रल वोटर हैं वह अपना वोट कांग्रेस को कभी नहीं देंगे. क्योंकि उनके मन में भी यह बात रहती है कि अगर समाजवादी पार्टी के गुंडाराज को ही चुनना है तो फिर बीजेपी की सरकार में हो रहे अपराध में क्या दिक्कत है. कांग्रेस अगर अकेले चुनाव मैदान में उतरती है तो न्यूट्रल वोटरों के साथ-साथ प्रियंका गांधी के नाम पर बीजेपी के समर्थकों का झुकाव भी कांग्रेस की तरफ हो सकता है.
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