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कविता: मैं कौन हूं

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मैं कौन हूँ ये बार बार पूछा जाता है,मेरे वजूद का सुबूत हर बार मांगा जाता है |मौजूदगी का प्रमाण नतमस्तक होकर दूँ,कुंठित साँचो में ढाला जाता है |न जाने कब तक सह पाऊं मैं घाव अंतर्मन के,आंगन अब झुलस रहा है बिना चमन के |छुपा भी लूं अश्रु अपने छुपाऊँ कैसे उदासी को,अपने ही घर मेहमान हूँ जैसे रखते हैं प्रवासी को |हक़दार नहीं क्या अपने ही अधिकारों की मैं ,बोल पडूँ तो प्रश्न यही , नहीं संस्कारों की मैं |चाहूँ मन भर उड़ना उस आजाद से आसमान में ,कुछ क्यारी मेरी भी हो इस समतल से मैदान में |तुम चाहो तो आकर सुनो क्या है हलचल मची,वो मूरत मूर्त सी है क्यों जो थी चंचल सी |मालूमात करोगे तो कड़ियाँ जान पाओगे,मेरी बग़ावत की बुनियाद पहचान जाओगे |लौट आओगे पास मेरे तो सीने से लगा लुंगी,मत चिंता करना मैं तुम्हारी सब बदतमीज़ी भूला दूंगी|पर ये न हो पायेगा अब के आत्मसम्मान को खो दूँ,जो पाया है मिन्नतों से उसे यूँही जमीं में बो दूँ |चाहे जो कहलो “मैं आवारा हूँ बर्बाद हूँ” ,मैं जानती हूं सही मायने मेरे मैं अब आज़ाद हूँ।
राहुल गुप्ता, सीकर

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