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औरंगजेब से किस मोर्चे पर हार गया दाराशिकोह?

साल 1658 मई का महीना. जगह, आगरा से यही कोई पांचेक कोस दूर यमुना किनारे सामूगढ़. दो शहजादे आमने-सामने. तख्त या ताबूत की इस लड़ाई में बड़ा भाई हार गया. जंग के मैदान से उधर की ओर भागा, जहां से उसके पुरखे हिंदुस्तान आए थे, लेकिन एक बलूच सरदार ने धोखा दे दिया. शाहजादा कैद कर लिया गया. फिर आया 8 सितंबर 1659 का वह दिन, जब दिल्ली की सड़कों पर एक परेड निकली.
मरियल सा एक हाथी और उस पर बैठा था एक बदनसीब. लोगों ने आंखें मल-मलकर देखा. वे यकीन नहीं कर पा रहे थे कि यह वही शहजादा है, जो गरीबों पर अशर्फियां लुटाता था. अगले कुछ घंटों में लाल किले में एक सर कलम होना था. चंद किलोमीटर दूर हुमायूं के मकबरे में एक कब्र खोदी जानी थी और उसमें दफ्न हो जाने वाला था दुनिया की सबसे अमीर सल्तनत का शाहजादा. सामूगढ़ की उस जंग ने तख्त का मसला तो हल कर दिया, लेकिन कई ऐसे सवाल खड़े कर दिए, जो आज भी अनसुलझे हैं. उस जंग में दाराशिकोह (darashikoh) न हारा होता तो क्या मुगल खानदान का सितारा और चमकता? दारा जीत जाता तो क्या हिंदोस्तां की गंगा-जमनी रवायत में कई और रंग जुड़ जाते? या 1707 के बजाय 1659 में ही औरंगजेब का चिराग बुझने का मतलब यह होता कि अंग्रेज और पहले भारत पर कब्जा कर लेते?
आइए चलते हैं 17वीं सदी के पन्नों की ओर, जहां एक बाप अपने बेटे से बेपनाह मुहब्बत कर रहा था. जहां एक बादशाह एक भयानक गलती कर बैठा. जहां एक शाहजादे ने अपने भाई की दरियादिली को उसके खिलाफ हथियार बना लिया. जहां एक शाहजादा कोहेनूर की तरह चमकने की तैयारी कर रहा था. वह शाहजहां का दौर था. उत्तर भारत में मुगल सल्तनत का हाल पहाड़ों से उतरकर मैदानों में आ चुकी नदी जैसा हो चुका था. मानो हर चीज एक लय में हो. सबको पता था कि शाहजहां के बाद मुगल साम्राज्य की बागडोर बड़े बेटे दाराशिकोह के हाथ में जानी है. लेकिन दारा एक अलग ही अखाड़े में था.
धर्म-दर्शन की बातों में उसका मन ज्यादा लगता. वह सूफियों, योगियों, फकीरों से घिरा रहता. विद्वानों की मदद से उसने कई धर्मों की प्रमुख किताबों का फारसी में अनुवाद कराया. यहां तक कि उसने संस्कृत ग्रंथों को समझने के लिए बनारस के कवींद्राचार्य सरस्वती को दिल्ली बुलाकर उनसे संस्कृत भी सीखी. 1654 के आसपास उसने एक किताब लिखी मज्म अल बहरैन, जिसका मतलब होता है दो समुद्रों का संगम. दारा ने यह किताब सूफी पंथ और वेदांत दर्शन की तुलना करते हुए लिखी. उसने यह भी लिखा कि रहस्यवाद के बारे में उसका जो अनुभव था, उसके आधार पर उसने किताब लिखी और इसका किसी भी धर्म के आम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है. यानी दारा ऐसी रहस्यमय बातों का मतलब समझने में जुटा था, जो सबको पता नहीं होतीं.
आमतौर पर यही कहा जाता है कि दारा इस्लाम और हिंदू धर्मों के बीच एक पुल बना रहा था और इसी मकसद से उसने तमाम धर्मग्रंथों के अनुवाद कराए. लेकिन उसका असल जोर शायद इस पर नहीं था. यह बात मज्म अल बहरैन लिखने के उसके मकसद से साफ होती है. कहा जाता है कि रहस्य और अध्यात्म की दुनिया में टहलते हुए दारा की नजर कुरान के एक अंश पर पड़ी, जिसमें एक गोपनीय किताब के बारे में कहा गया है. दारा ने इसका मतलब यह निकाला कि हो न हो, यह उपनिषदों की ओर इशारा है, जिसकी बातें हिंदू विद्वान मुसलमानों को नहीं समझाते. इसके बाद उसने उपनिषदों को समझने का बीड़ा उठाया.
पैसे की कोई तंगी दारा को थी नहीं. निजी खर्च के लिए दो करोड़ रुपये सालाना तो उसे शाहजहां ही देता था. दारा ने संस्कृत और फारसी के विद्वानों को जुटाकर करीब 50 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया. इस ग्रंथ का नाम रखा सीर ए अकबर, जिसका मतलब है सबसे बड़ा रहस्य. दारा का मानना था कि उपनिषदों के जरिए वह अपने धर्म की ऐसी बातें सामने ला रहा है, जो बहुत कम लोगों को पता होंगी. उस वक्त भारत में मौजूद रहे फ्रांसीसी यात्री फ्रांस्वा बर्नियर का कहना था कि दारा की शख्सियत काफी अलग थी. उसे लगता था कि वह तमाम रूहानी बातें जानता है और धर्मग्रंथों के अनुवादों के जरिए वह यही साबित करना चाहता था
दारा को पता था
दारा को पता था कि तख्त आसानी से नहीं मिलने वाला, औरंगजेब (Aurangzeb) से उसे चुनौती मिलेगी. हो सकता है कि इसी के चलते उसने खुद को ऐसे इंसान के रूप में पेश करने के बारे में सोचा हो, जिसके रूहानी कद की कोई बराबरी न कर सके और मुगल सिंहासन पर उसके दावे को कोई चुनौती न दे सके. लेकिन इस खयाल में डूबा दारा इतना आगे निकल गया कि वक्त की बिसात पर अकेला पड़ गया. बाप की मुहब्बत और बहुत खास बातें जानने के यकीन ने दारा को मगरूर भी कर दिया. इसके चलते शाहजहां के खास दरबारी दारा से दूरी बनाने लगे. इसकी तस्दीक फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने भी की है. बर्नियर लिखता है, दारा खुद को हर चीज का उस्ताद समझता था. जो करीबी लोग उसे सलाह देते, वह उन्हें झिड़क देता. हाल ऐसा हो गया कि उसके दोस्त तक उसे जरूरी बातें बताने से परहेज करने लगे. लेकिन दारा को लगता था कि सब लोग उससे प्यार करते हैं और तकदीर उसके साथ है.
औरंगजेब का बढ़ता दबदबा
बर्नियर की राय दारा का वह पहलू सामने लाती है, जिसे उसकी उदार सोच के सामने कुछ खास तवज्जो नहीं दी जाती. उधर, औरंगजेब दूसरे धर्मों के लोगों से करीबी बढ़ाने की दारा की हरकतों से चिढ़ा हुआ था. उसकी सोच यह भी थी कि अगर दारा जैसे अनाड़ी आदमी के हाथ में बादशाहत गई तो मुगल खानदान का शीराजा बिखरते देर नहीं लगेगी. दारा को शाहजहां ने बमुश्किल एक बार अफगानिस्तान के सैन्य अभियान पर भेजा था. उसमें भी उसे नाकामी हाथ लगी. उधर औरंगजेब दक्षिण भारत से लेकर राजस्थान, गुजरात और अफगानिस्तान तक में सैन्य अभियानों की कमान संभालता रहा. इससे सैनिकों के बीच उसकी साख बढ़ी. यह इज्जत उसे शाहजहां की वजह से नहीं मिली.
औरंगजेब ने यह इज्जत खुद कमाई थी. दारा की हरकतों से मुस्लिम धर्मगुरुओं में भी काफी नाराजगी थी. वे औरंगजेब के साथ आ गए. लेकिन खास बात यह भी है कि औरंगजेब को मेवाड़ के राणा राज सिंह, आमेर के राजा जय सिंह और मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह जैसे ताकतवर हिंदू राजाओं का भी साथ मिला. 1657 में शाहजहां जब गंभीर रूप से बीमार पड़ गया तो सिंहासन के लिए चल रही रस्साकशी को काबू कर पाना उसके वश में नहीं रह गया और आखिरकार आगरा से 16 किलोमीटर दूर सामूगढ़ में उस फैसलाकुन जंग की घड़ी आ ही गई. उसमें भी दारा का नौसिखियापन साफ दिखा. वह सामूगढ़ पहुंचा, लेकिन कुछ बड़े सरदारों ने अपनी सेना उसके साथ नहीं भेजी. हाल यह था कि उसके सैनिकों में बड़ी तादाद ऐसे आम लोगों की थी, जिन्हें जंग का अलिफ बे तक मालूम नहीं था.
उधर औरंगजेब के साथ थे लड़ाइयों में तपे हुए सिपाही. औरंगजेब को तीसरे भाई मुराद का भी साथ मिला. लड़ाई में एक समय दारा ने एक सिरे पर पूरी ताकत झोंक दी और काफी आगे बढ़ गया. जब उसने तोपखानों से गोलाबारी का हुक्म दिया तो पता चला कि तोपखाने तो पीछे रह गए. यही नहीं, उसके कुछ करीबियों ने सलाह दे डाली कि चूंकि वह हाथी पर सवार है, लिहाजा दुश्मन को आसानी से नजर आ रहा है. उसे घोड़े पर सवार हो जाना चाहिए. दारा ने ऐसा ही किया, लेकिन इस अफरातफरी में उसके अपने खेमे में कन्फ्यूजन फैल गया. सैनिकों को लगा कि दारा पीछे हट रहा है.
हौसला टूटते ही चंद घंटों में दारा के दसियों हजार सैनिक कत्ल कर दिए गए. आखिरकार वह शर्मनाक परेड हुई दिल्ली की सड़कों पर. फ्रांसीसी यात्री बर्नियर भी उसका गवाह बना. दारा का सिर काटकर आगरा में कैद शाहजहां के पास भेजा गया. हो सकता है, उस लम्हे में शाहजहां को खयाल आया हो कि दारा को हर वक्त अपनी आंखों के सामने रखने की चाहत ने उससे कितनी बड़ी गलती करा दी. उसने अपने अजीज बेटे के लिए कश्मीरी गेट के पास एक लाइब्रेरी तो बनवाई, लेकिन उसकी मुहब्बत के घेरे में दारा वह सब नहीं सीख सका, जो तख्त संभालने के लिए जरूरी था. वह दौर तो सैकड़ों साल पीछे रह गया, लेकिन कुछ सवाल उभरते रहते हैं.
दारा बादशाह बनता तो क्या होता? ऐसा लगता है कि उसके उदार रवैये के चलते मेलमिलाप की तहजीब और मजबूत होती. यह सीमेंट शायद मुगल वंश और हिंदुस्तान, दोनों को लंबे समय के लिए मजबूत कर देता. लेकिन बर्नियर ने दारा की जिस अकड़ का जिक्र किया है, उससे लगता है कि ज्ञान के अहंकार और सत्ता के मेल से वह निरंकुश भी बन सकता था. ऐसी मनमानी और राजकाज में नादानी के मेल ने हो सकता है कि मुगल वंश की नींव बहुत पहले हिला दी होती. ऐसा होने पर जहांगीर के समय से ही भारत पर निगाह टिकाए अंग्रेजों को प्लासी की जंग के 100 साल पहले ही मौका मिल गया होता, जिन्हें औरंगजेब ने एक वक्त सूरत में जंजीरों में बांधकर घुमाया था.
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