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पीढिय़ों से गलीचा बुनना सिखा कर बहुओं को अर्थ शक्ति बना रही है सास

सीकर/गणेश्वर. नीमकाथाना व श्रीमाधोपुर क्षेत्र की ग्रामीण महिलाएं पुश्तैनी रोजगार व संस्कृति के संरक्षण के साथ बरसों से महिला सशक्तिकरण की मिसाल बनी हुई है। यहां के करीब 15 गांवों में रैगर समाज की सैंकड़ों महिलाएं गलीचे निर्माण का कार्य वंश परंपरा से कर रही है। जो घरेलु कार्यो से समय निकालकर इस पुश्तैनी परंपरा व रोजगार संस्कृति को आगे बढ़ाकर परिवार का अर्थतंत्र बनी हुई है।
सास सिखाती है बहुओं को बुनाई, समय बचाकर होता है कामगलीचा बुनाई का उद्योग सकराय,चीपलाटा,साईवाड,हाथीदेह,खटखट किशोरपुरा,पिथलपुर, आसपुरा सहित 15 गांवों में पीढिय़ों से संचालित हो रहा है। यहां सास अपनी बहुओं को घर की परंपराओं के साथ लूम पर गलीचा बुनाई का काम सिखाती है। जिससे ये लघु उद्योग पीढ़ी दर पीढी आगे बढ़ रहा है। इस काम के लिए महिलाएं अपने घरेलु कार्यों में से ही समय निकालती है। सकराय चीपलाटा की माया देवी व हीरा देवी ने बताया कि शादी होकर आने के बाद से ही उनकी सास ने उन्हें इसका प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। जिसे वे अब वे आने वाली पीढिय़ों तक पहुंचाएगी।
तीन महिलाएं डेढ महीने में बनाती है दो लाख का गलीचा सूत के ताने बाने से गलीचा लकड़ी व लोहे के लूम पर तैयार किया जाता है। एक लूम में तीन महिलाएं कार्य करती है। जो करीब डेढ से दो महीने में एक गलीचा तैयार करती है। जिनकी बाजार में कीमत 50 हजार से 2 लाख रुपये तक होती है। जिसका करीब 25 फीसदी तक का हिस्सा ही इन महिलाओं के हिस्से आता है।
अमेरिका व यूरोप तक पहुंच, पर घटा मुनाफा यहां तैयार गलीचा देश ही नहीं अमेरिका व यूरोप तक जाता है। ठेकेदार जयपुर से कच्चा माल लाकर यहां से गलीचा तैयार करवाते हैं। इसके बाद उसकी सफाई व रंगाई कर उन्हें देश- विदेश तक भेजा जाता है। हालांकि इस काम से जुड़ी महिलाओं का कहना है कि इस काम में पहले अच्छा मुनाफा था। लेकिन, प्रतिस्पर्धा व ठेके के काम की वजह से इसमें मुनाफा कम हो गया है। जिसकी वजह से इस काम के प्रति रुझान भी घटने लगा है। अच्छा मुनाफा होने पर पहले पुरुष भी काम में हाथ बंटा देते थे। लेकिन, अब उन्हें भी दूसरे काम-धंधे तलाशने पड़ रहे हैं। गलीचा निर्माता महिलाओं ने इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सरकार से उचित कदम उठाने की मांग भी की है।

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