मोदी-शाह (Modi-Shah) की नजरें ममता के बंगाल, पटनायक के ओडिशा, केसीआर के तेलंगाना और जगन के आंध्र पर टिकी हैं.
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के पास ऐसा क्या है कि भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) उनका साथ छोड़ नहीं रही है? कई राजनीतिक रणनीतिकार इसका जवाब ढूंढ़ने के लिए अपना सिर धुन रहे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को लगे झटकों ने अमित शाह का जोखिम न लेने की राह पर मोड़ दिया है.
वह नहीं चाहेंगे कि कुमार 2015 की तरह फिर कोई महागठबंधन बनाए, जिसमें जनता दल-यूनाइटेड (जदयू), कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और अन्य दल शामिल हों और इसीलिए उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 2020 में भाजपा-जदयू गठबंधन का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके सारी अटकलों पर विराम लगा दिया है. भाजपा के अंदरूनी सूत्र इस पर कुछ अलग ही राय रखते हैं. उनका कहना है कि शाह की प्राथमिकता पहले राजद को खत्म करना है.
उनका आकलन कहता है कि इस चुनाव में मिली हार लालू यादव की पार्टी को हमेशा के लिए अप्रासंगिक बना देगी. राजद के वरिष्ठ नेताओं ने पहले ही पार्टी छोड़ना शुरू कर दिया है और एक अन्य चुनावी हार राजद के मुख्य आधार, यादवों को भाजपा के पाले में खड़ा कर देगी. 69 साल के नीतीश कुमार अपनी अंतिम राजनीतिक पारी खेल रहे हैं और एक बार उन्होंने राजनीति से किनारा किया तो जदयू के पास आगे लंबे समय तक टिके रहने के लिए नेतृत्व की दूसरी पंक्ति नहीं है.
राजद और जदयू के राजनीतिक हाशिये पर जाने के साथ ही बिहार में भाजपा अपराजेय हो जाएगी. कहने का सीधा आशय यह है कि भाजपा पहले नीतीश कुमार को राजद के ‘सफाये’ के लिए इस्तेमाल करना चाहती है और फिर इस बात इंतजार और इस दिशा में काम करना चाहती है कि नीतीश कुमार परिदृश्य से बाहर हो जाएं ताकि वह उनकी राजनीतिक विरासत पर दावा करे या फिर उसे हड़प सके.
भाजपा ने क्षेत्रीय दलों पर झोंकी ताकत
भाजपा ओडिशा में भी इसी तरह इंतजार की रणनीति अपना रही है. वह 2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को तीसरे स्थान पर धकेल कर प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी. ऐसे में किसी को भी यही उम्मीद होगी कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह अब इसका फायदा उठाएंगे और नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) के साथ जोर-आजमाइश करेंगे. इसके बजाये, भाजपा ने संसद में अपनी सरकार का समर्थन सुनिश्चित करने के लिए बीजू जनता दल की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाया. उनके साथ रिश्ते इतने सौहार्दपूर्ण हैं कि भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजद के पूर्व नेता बैजयंता पांडा को अपने खेमे में लाने के लिए राज्यसभा सीट देने जैसा कदम नहीं उठाया.
इसे लेकर भी भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि मोदी और शाह अक्टूबर में 74 साल के होने जा रहे पटनायक की राजनीतिक पारी पूरी होने का इंतजार करेंगे. पटनायक, जिन्होंने पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार नहीं किया है, एक बार मैदान से बाहर हुए तो भाजपा के लिए बीजद का जनाधार खत्म करना और उस पर कब्जा करना आसान होगा. कांग्रेस आज ओडिशा में अप्रासंगिक हो चुकी है, ऐसे में भाजपा राज्य की राजनीति पर उसी तरह हावी होने को तत्पर है जैसे पिछले दो दशक से बीजद वहां पर काबिज है.
बहरहाल, मोदी और शाह क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले अन्य राज्यों में अपनी बाजीगरी आजमा रहे हैं. मोदी सरकार को अपनी पहली पारी में इनकी आवश्यकता थी क्योंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास विवादास्पद विधेयकों पर संसदीय अनुमोदन के लिए बहुमत कम था और अन्य दलों की मदद की जरूरत थी. मौजूदा स्थिति में एनडीए 245 सदस्यीय राज्यसभा में सहज स्थिति में है जिसके पास कांग्रेस की 40 सीटों के मुकाबले अकेले भाजपा की 85 सीटें हैं.
यहां तक कि अगर कोई भाजपा विरोधी दलों (आज की तारीख में) के सांसदों की गिनती करे तो, वामपंथी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी), झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कुछ अन्य यानी कुल मिलाकर कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की संख्या अकेले भाजपा के बराबर नहीं हो सकती. एनडीए सांसद और नामित सदस्यों को मिला दिया जाए तो आंकड़ा राज्यसभा में बहुमत के निशान से करीब एक दर्जन ही कम है, जबकि ऐसे पाला बदलने वाले सदस्यों की लंबी फेहरिस्त है जो सदन पटल पर मोदी सरकार का समर्थन करने को तैयार हैं. इसलिए, मोदी सरकार को अब क्षेत्रीय दलों को साधने की जरूरत नहीं है.
भाजपा की मजबूती में क्षेत्रीय दलो का सबसे बड़ा हाथ
जब भाजपा अपने ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा दे रही थी और केंद्र और कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वंद्वी होने वाले राज्यों में सफलता हासिल कर रही थी, वो क्षेत्रीय दल ही थे जिन्होंने ग्रांड ओल्ड पार्टी (कांग्रेस) के खिलाफ मोर्चेबंदी की थी. मुद्दे कांग्रेस ने उठाये, भाजपा को कांग्रेस ने घेरा हर मुद्दे पर, वोट जाति धर्म के नाम पर क्षेत्रीय दलो ने लिए. इन क्षेत्रीय दलों ने कई राज्यों में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया कर दिया, जिससे भाजपा को उस राजनीतिक रिक्तता को भरने और विस्तार का मौका मिला.
पश्चिम बंगाल में भाजपा इसलिए हावी हो रही है क्योंकि वहां पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस एकमात्र चुनौती बनी हुई है, 65 वर्षीय बनर्जी की राजनीतिक पारी पूरी होने में अभी काफी वक्त है और भाजपा ऐसे में अपना समय बेवजह बर्बाद नहीं कर सकती है. नवीन पटनायक की तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी और के. चंद्रशेखर राव भी तमाम व्यावहारिक उद्देश्यों को ध्यान में रख भाजपा के सहयोगी दलों की तरह काम कर रहे हैं.
हाल तक संसद में इनके समर्थन की जरूरत रहने के बाद, भगवा पार्टी ने इन दो क्षेत्रीय क्षत्रपों को कांग्रेस और तेलुगुदेशम पार्टी के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए छोड़ दिया है. भाजपा ने अपनी दक्षिण यात्रा में पार्टी के लिए ये दोनों राज्य ‘स्वाभाविक तौर पर अगला पड़ाव’ हैं. भाजपा को तेलंगाना में अपने लिए ‘एक उर्वर जमीन’ नजर आती है, जहां 13 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है और अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी (Owaisi) सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के सहयोगी बने हुए हैं.
2019 में भगवा पार्टी ने राज्य की 17 लोकसभा सीटों में से चार पर जीत हासिल की थी जबकि टीआरएस को 9 और कांग्रेस की तीन सीटें मिली थीं. तेलंगाना में कांग्रेस राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक नहीं हो सकती है, जैसे बिहार, ओडिशा या पश्चिम बंगाल में हो गई है. लेकिन फिर भी भाजपा के पास ओवैसी से अंदरूनी ताल-मेल बिठा कर आक्रामक होने के कारण हैं.आंध्र प्रदेश में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस को भी 2019 के लोकसभा चुनाव में खास सफलता नहीं मिली.
अब जबकि 70 साल के चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली टीडीपी के फिर से खड़े होने के कोई संकेत नहीं दिख रहे और मुख्यमंत्री रेड्डी पर ‘अल्पसंख्यक तुष्टीकरण’ का आरोप लगाया जा रहा है, यह भाजपा के मोर्चा संभालने के लिए एक आदर्श स्थिति है. पार्टी ने अपने दो युवा सांसदों- मैसूर के प्रताप सिम्हा और बेंगलुरु दक्षिण के तेजस्वी सूर्या को इस साल की शुरुआत में अभिनेता से नेता बने जनसेना पार्टी के पवन कल्याण से मिलने भेजा था.
भाजपा चाहेगी कि कल्याण अपनी पार्टी का उसके साथ विलय कर दें और आंध्र की राजनीति में उसका चेहरा बन जाएं. हालांकि अभी शुरुआत है लेकिन भाजपा ने वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है. सीबीआई पहले से आय से अधिक संपत्ति मामले में रेड्डी पर शिकंजा कसने को तैयार है.
कांग्रेस को क्या करना चाहिए?
अब जो भी करना है जनता को करना है. कोंग्रेस (Congress) तो जनता के मुद्दों पर बात कर ही रही है इसके साथ सीमा सुरक्षा के मुद्दों पर भी अकेली डट कर खड़ी है, कोई दल साथ नही है. जनता ने हमेशा जाति धर्म के नाम पर क्षेत्रीय दलों को चुना है. कांग्रेस लगातार मुद्दे उठाने के बाद भी, जनता का साथ देने के बाद भी, हर जाति धर्म को साथ लेकर चलने के बाद भी, जनता की ही दगाबाजी से हारती रही है.
क्षेत्रीय दल पूरे 5 साल शांत रहते हैं, बीच में कभी निकलते रहते हैं, ताकि जनता में भ्रम बना रहे. पूरे 5 साल राज्य के मुद्दों पर भी और देश के मुद्दों पर भी कांग्रेस भाजपा के खिलाफ डटकर मुकाबला करती रहती है, लेकिन जैसे ही चुनाव आते हैं क्षेत्रीय दल मैदान में जाति धर्म के नाम पर वोट लेने के लिए आ जाते हैं. इसके अलावा भी जाति धर्म के नाम पर कई नेता पैदा हो जाते हैं, जो भाजपा के खिलाफ तो बोलते हैं, लेकिन जनता को बताते नहीं है कि वोट किसे देना है.
क्षेत्रीय दलों की मजबूती का पहले यही कारण था और क्षेत्रीय दलों की मजबूती भाजपा के लिए संजीवनी साबित हुई है आज भाजपा क्षेत्रीय दलों को ने के लिए तैयार बैठी है. फिर चुनाव आएगा फिर क्षेत्रीय दल कांग्रेस का वोट काटने के लिए निकल पड़ेंगे. जनता को सोचना है कि भाजपा के खिलाफ, भाजपा को रोकने के लिए, वोट क्षेत्रीय दलों को देकर पीछे के दरवाजे से भाजपा को मजबूत करना है या फिर खुलकर कांग्रेस का साथ देना है.
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