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दिल्ली नहीं घुसने देने पर अड़ी सरकार क्यों झुकी?

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क्या ये किसान आंदोलन राजनीतिक है? अगर हां तो कौन क्या राजनीति कर रहा है? और ये बात कहां तक जाएगी? भारत में हर वक्त किसानों के आंदोलन चलते रहते हैं लेकिन किसान आंदोलन में ऐसी क्या खास बात है जिसका बड़ा राजनीतिक परिणाम हो सकता है?  ये बात सरकार के रूख से ही साफ हुई है. वरना इसे आया गया आंदोलन माना जा सकता था.
दिल्ली पुलिस की विनम्रता के पीछे का राज
दिल्ली पुलिस ने शुक्रवार को जो विनम्रता दिखाई और आंदोलनकारियों को दिल्ली आने की इजाजत दे दी, इसी ने कई राज खोल दिए हैं. जिस सरकार ने दिल्ली और हरियाणा में किसानों को ना घुसने देने के लिए अभूतपूर्व पुलिसिया इंतजाम किया. उसे दिन भर के टकराव के बाद ये समझ में आ गया कि इससे ज्यादा बल प्रयोग सरकार के लिए उलटा पड़ सकता है.
यह हृदय परिवर्तन मामूली बात नहीं है. इस सरकार में अगर कोई राय बना ली गई है कि किसी आंदोलन को न चलने देना है या दबा देना है या इसकी अनदेखी करनी है तो वह उस पर अडिग रहती है. लेकिन आंदोलनकरियों को दिल्ली आने देना बड़ा यू टर्न है.सरकार की ये आशा और रणनीति गलत निकली कि ये आंदोलन ढीला हो जाएगा. इस आंदोलन की विश्वसनीयता खत्म करने के लिए इसे खालिस्तान कनेक्शन के से जोड़ने की भारी कोशिश की गयी.
इसे सोशल मीडिया की ट्रोल सेना का प्रोपेगंडा कहकर इसलिए खारिज नहीं कर सकते क्योंकि बीजेपी के पदाधिकारियों ने इस कैम्पेन को खूब हवा दी. अगर ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र है और सरकार को इसकी जानकारी है तो वह इतनी उदारता नहीं दिखाती, उल्टे “देश विरोधियों को बेनकाब” करने का कोई बड़ा राजनीतिक कदम सामने आ जाता. इसके पहले ये नैरटिव चलाया गया कि किसानों को कांग्रेस और अकाली दल वाले भड़का रहे हैं.
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने गुरुवार को पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह पर किसानों को भड़काने का आरोप लगाया. भाजपा की तरफ से कहा जा रहा है कि आंदोलन पंजाब के बड़े अमीर किसानों का है, ये आंदोलन बिचौलियों ने भड़काया है और इनके मुद्दे में कोई दम नहीं है क्योंकि तीनों किसान बिल में किसानों के फायदे में हैं. ये आंदोलन लंबे समय से चल रहा है.
जब किसान दिल्ली की दहलीज पर पहुंच गये तब गुरुवार को राजनाथ सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर ने बातचीत की पेशकश की. ये डैमेज कंट्रोल की करवाई थी. आठ दस हफ्तों के बाद क्यों बातचीत की उदारता दिखाई गयी. पहले ही कर लेते. अब जब किसान इस राउंड में जीतते नजर आ रहे हैं तो विपक्ष समर्थन देते, जुड़ते नजर आने की कोशिश कर रहा है. लेकिन राजनीतिक पार्टियों को इस आंदोलन का श्रेय देना गलत है. इस आंदोलन की एक खास बात है कि इसका कोई एक नेता नहीं है, कोई एक संगठन इसे नहीं चला रहा. इसके दर्जनों नेता हैं, सैकड़ों संगठन हैं.
ये इस आंदोलन की मजबूती भी है और यही बात इसकी कमजोरी भी हो सकती है. भारत में आंदोलनों का भटक जाना कोई नई बात नहीं. अभी इस आंदोलन में पंजाब के हर तबके के किसान नजर आ रहे हैं.हरियाणा के जाट किसान हैं, बाकी तबके अभी इस से दूर हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मामूली सी शिरकत है. इस किसान आंदोलन के पीछे कोई भी हो या ना हो, अभी आंदोलन टिका हुआ है और जोश में दिखता है. हमें ये अभी “दिखा” है क्योंकि मुख्यधारा का मीडिया इस हफ्ते की घटनाओं की अनदेखी नहीं कर पाया.
किसानों के अलग अलग आंदोलन देश में काफी समय से चल रहे हैं. वो हमें दिखलाई नहीं पड़ते. इस हफ्ते के घटनाक्रम ये बता रहे हैं कि केंद्र सरकार ने इन मुद्दों पर बात नहीं की, हल नहीं निकाला तो वो एक जोखिम उठा रही होगी. इस आंदोलन ने एक उर्वर जमीन तैयार की है और प्रतिरोध पनप सकते हैं. दलितों का एक ऐसा ही आंदोलन 2018 में हमने अचानक देखा था और नागरिकता कानून के खिलाफ. उग्र दमन के बावजूद दूसरा बड़ा आंदोलन भी हुआ था.
यह सरकार प्रतिरोध को पचाने में माहिर है. पब्लिक मूड देख कर अपनी ज़िद्द छोड़ कर अपना स्टैंड बदलने की चतुराई भी इसमें है. इतना साफ़ है ये आया और गया वाला आंदोलन नहीं है ये बात कहां जाएगी ये इस पर निर्भर होगा कि अगला राउंड कौन कैसे खेलेगा. बहरहाल उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन ने भी दिल्ली के लिए मार्च किया है. किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा कि सरकार किसानों के मसले को हल करने में नाकाम रही है. हम अब दिल्ली जा रहे हैं.
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