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क्यों असहज हैं वरुण गाँधी?

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भारतवर्ष में आपातकाल की घोषणा से पूर्व जब स्वर्गीय संजय गांधी (Sanjay Gandhi) अपनी मां प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी (Indira Gandhi) को राजनीति में सहयोग देने के मक़सद से राजनीति के मैदान में उतरे उस समय उन्होंने अपने जिस सबसे ख़ास मित्र को अपने विशिष्ट सहयोगी के रूप में चुना उस शख़्सियत का नाम था अकबर अहमद ‘डंपी’.
डंपी के पिता इस्लाम अहमद उत्तर प्रदेश पुलिस में आईजी थे तथा दादा सर सुल्तान अहमद इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश रह चुके थे. डंपी संजय गाँधी के सहपाठी होने के अतिरिक्त उनके ‘हम प्याला’ और ‘हम निवाला’ भी थे. संजय गाँधी के राजनीति में पदार्पण से पूर्व डंपी विदेश में नौकरी कर अपना करियर बना रहे थे. परन्तु संजय गाँधी के निमंत्रण पर वह नौकरी छोड़ भारत वापस आये और स्वयं को संजय गाँधी व उनके परिवार के प्रति समर्पित कर दिया.
वैसे तो संजय-डंपी की दोस्ती के तमाम क़िस्से बहुत मशहूर हैं परन्तु 1970-80 के दौर की मशहूर इन दो बातों से संजय-डंपी की प्रगाढ़ मित्रता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. एक तो यह कि प्रधानमंत्री आवास में डंपी की पहुँच बिना किसी तलाशी के इंदिरा जी के बेडरूम व रसोई तक हुआ करती थी. दूसरी कहावत यह मशहूर थी कि जब संजय का बेटा (वरुण) रोता था तो वह मां की नहीं, बल्कि डंपी की गोद में चुप होता था.
जिस समय संजय गाँधी की दिल्ली में विमान हादसे में मृत्यु हुई उस समय वरुण की उम्र मात्र तीन वर्ष थी. इस हादसे के बाद नेहरू-गाँधी परिवार (Nehru-Gandhi family) में सत्ता की विरासत की जंग छिड़ गयी. संजय गाँधी की धर्मपत्नी मेनका गाँधी बहुत जल्दबाज़ी में थीं. वह इंदिरा से यही उम्मीद रखती थीं कि यथाशीघ्र उन्हें संजय गाँधी का राजनैतिक वारिस घोषित किया जाये जबकि इंदिरा पुत्र बिछोह के शोक में डूबी ‘वेट एंड वाच ‘ की मुद्रा में थीं. नतीजतन मेनका की जल्दबाज़ी व अत्याधिक राजनैतिक महत्वाकांक्षा की सोच ने इंदिरा-मेनका यानी सास-बहू के बीच फ़ासला पैदा कर दिया.
उस समय कांग्रेस पार्टी के किसी एक भी वरिष्ठ नेता ने इंदिरा गाँधी को छोड़ मेनका गाँधी का साथ देने का साहस नहीं किया और उस समय भी राजनैतिक नफ़ा नुक़सान की चिंता किये बिना, अकबर अहमद ‘डंपी’ ही एक अकेला ऐसा व्यक्ति था जिसने संजय गाँधी से उनके मरणोपरांत भी दोस्ती व वफ़ादारी निभाते हुए उनकी पत्नी के साथ खड़े होने का फ़ैसला किया और मेनका गाँधी द्वारा गठित संजय विचार मंच के झंडे को उठाया. निश्चित रूप से डंपी का यह निर्णय राजनैतिक रूप से उनके लिये घाटे का फ़ैसला साबित हुआ.
दो विवादित बयान
सवाल यह है कि ऐसे धार्मिक सौहार्दपूर्ण संस्कारों में परवरिश पाने वाले वरुण गांधी (Varun Gandhi) को अचानक ऐसा क्या हो गया कि 7 मार्च 2009 को उनपर चुनावी सभा के दौरान भड़काऊ भाषण देने का आरोप लग गया? उस समय उनके विरुद्ध पीलीभीत की अदालत में मुक़दमा दर्ज किया गया और मुक़दमा दर्ज होने के बाद वरुण को राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के अंतर्गत गिरफ़्तार भी किया गया? उस समय वरुण गाँधी अपने इन्हीं दो विवादित बयानों के चलते रातोंरात बीजेपी के फ़ायर ब्रांड नेताओं में गिने जाने लगे थे.
वरुण ने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र पीलीभीत में एक जनसभा में कहा था कि- ये हाथ नहीं है, ये कमल की ताक़त है जो किसी का सिर भी क़लम कर सकता है. इसी तरह उनका दूसरा विवादित भाषण था कि, अगर कोई हिंदुओं की तरफ़ हाथ बढ़ाता है या फिर ये सोचता हो कि हिंदू नेतृत्व विहीन हैं तो मैं गीता की क़सम खाकर कहता हूँ कि मैं उस हाथ को काट डालूँगा. अपने भाषण में वरुण ने महात्मा गांधी की उस अहिंसावादी टिप्पणी का भी मज़ाक़ उड़ाया था व इसे ‘बेवक़ूफ़ीपूर्ण’ बताया जिसमें गाँधी ने कहा था कि, कोई अगर आपके गाल पर एक चांटा मारे तो आप दूसरा गाल भी उसके आगे कर दें. वरुण का कहना था, उसके हाथ काट दो ताकि वो किसी दूसरे पर भी हाथ न उठा सके.
दरअसल, नेहरू गाँधी परिवार और उनके पारिवारिक संस्कार क़तई ऐसे नहीं जहाँ अतिवाद या सांप्रदायिकता की कोई गुंजाइश हो. परन्तु अनेकानेक विचार विहीन ‘थाली के बैंगन’ क़िस्म के नेता सांप्रदायिकता व अतिवाद का सहारा लेकर महज़ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये धार्मिक उन्माद का आवरण ओढ़ लेते हैं. संभव है कि मेनका-वरुण ने भी बीजेपी में रहते व पार्टी की ज़रूरत को महसूस करते हुए स्वयं को भी उसी रंग में रंगने का असफल व अप्राकृतिक प्रयास किया हो.
जिस समय वरुण गांधी पर उनके उपरोक्त कुछ विवादित बयानों के बाद ‘फ़ायर ब्रांड’ नेता का लेबल चिपका था उस समय ‘भगवा ब्रिगेड’ उनकी जय जयकार करने में उनके पीछे लग गयी थी. उन्हें योगी आदित्यनाथ के बराबर खड़ा करने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. यहाँ तक कि बीजेपी के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों तक में उनका नाम लिया जाने लगा था. परन्तु चूँकि मां-बेटे दोनों के ही डीएनए में कट्टरपंथ, सांप्रदायिकता व अतिवाद शामिल नहीं था इसीलिये वे नक़ली ‘फ़ायर ब्रांड’ बन कर रह गये.
देश के सर्वोच्च राजनैतिक परिवार के सदस्य होने के चलते ही वरुण व मेनका- दोनों ने ही आज तक राजीव-सोनिया- राहुल व प्रियंका किसी के भी विरुद्ध न तो एक शब्द बोला और न ही इनके विरुद्ध चुनाव प्रचार में गये. यही ख़ानदानी आदर्श शायद भारतीय जनता पार्टी आला कमान को रास नहीं आया. शायद इसीलिये बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से मां-बेटे दोनों की ही छुट्टी कर दी गयी. कहा जा सकता है कि वैचारिक भ्रम का शिकार होने की वजह से ही वरुण-मेनका गाँधी को कई कई बार सांसद होने के बावजूद उपेक्षा के दौर से गुज़रना पड़ रहा है.
वरुण गांधी की कांग्रेस में जाने की चर्चाएं
जब से वरुण गांधी किसानों के समर्थन में अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं तभी से कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि पीलीभीत किसान बहुल क्षेत्र है, इस कारण वह किसानों के समर्थन में आवाज बुलंद कर रहे हैं, ताकि उन्हें राजनीतिक तौर पर नुकसान ना हो. जबकि कुछ लोगों का कहना है कि वह कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं.
हालांकि वरुण गांधी ने कांग्रेस में शामिल होने की खबरों को अफवाह बताया है. लेकिन सच यही है कि धुआं उठ रहा है तो इसके पीछे कुछ ना कुछ राज जरूर है और आने वाले कुछ महीनों में स्थिति साफ हो जाएगी. लेकिन घटनाओं पर नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि वरुण गांधी की अपने भाई बहन यानी राहुल और प्रियंका गांधी से कांग्रेस में शामिल होने को लेकर अंदरूनी तौर पर बातचीत जरूर चल रही है, सूत्रों से यह जानकारी निकलकर सामने आ रही है.
यह ध्यान रखना होगा कि गांधी परिवार के एकजुट होने का संदेश पूरे देश में जाएगा और उत्तर प्रदेश तो गांधी परिवार की कर्म स्थली है. निश्चित तौर पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में एक नई ऊर्जा का संचार होगा, और उत्तर प्रदेश की जनता में भी देख पॉजिटिव संदेश जाएगा. देर सवेर वरुण गांधी कांग्रेस में शामिल जरूर होंगे, घटनाओं का विश्लेषण करने पर फिलहाल तो यही नजर आ रहा है.
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