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बेलगाम होती सरकार और संस्थाएं आखिर इतनी बेखौफ़ क्यों हैं?

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मौजूदा केंद्र सरकार और सरकार के अधीन कार्यरत संस्थाओं के साथ ही, सरकार के समांतर चलने वाली संस्थाएं जैसे न्यायपालिका और मीडिया भी बेखौफ़ और बेलगाम होकर मनमानी करने पर उतारू हैं. ना तो ये भारतीय संविधान के अनुरूप कार्य कर रही हैं और ना ही भारतीय संस्कृति के अनुरूप. इन्हें ना तो देश की अखंडता और समप्रभूता की चिंता है और ना ही देशवासियों की कोई परवाह. इस सरकार और इन संस्थाओं में इतनी निरंकुशता, निर्ममता और निर्भीकता कहां से आई? इस पर गहन चिंतन और विश्लेषण की आवश्यकता है.
वर्तमान में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और भाजपा पर हमेशा आरोप लगते रहे हैं कि वह संप्रदायिक मुद्दों को आधार बनाकर चुनाव लड़ती है और जनता को धर्म और जाति में बांटकर चुनाव जीतने का प्रयास करती है. हालांकि यह आरोप कितने सच है यह बात हमें जनता पर ही छोड़ देनी चाहिए.
निरंकुश और भ्रामक मीडिया
गुजरी गर्मियों में जब कोरोना महामारी की शुरुआत हुई तो तमाम खबरिया टीवी चैनलों पर तब्लीगी जमात शब्द खूब सुनने को मिला. भारतीय मीडिया द्वारा यह प्रचारित किया गया कि देश के अंदर कोरोना वायरस तब्लीगी जमात के कारण ही आया है. तब्लीगी जमात को लेकर तरह-तरह के फेक वीडियो भी वायरल हुए, जिसमें कहीं दिखाया गया कि तब्लीगी जमात के लोग नोट पर थूक लगाकर फेंक रहे हैं तो कहीं फलों को जूठा करने की अफवाह फैलाई गई. कुछेक जगह तो अस्पतालों को लेकर भी अफवाह फैलाई गई, हालांकि बाद में ऐसी तमाम खबरें झूठी व साजिशन दिखाई गई साबित हुई और लगभग सभी बड़े न्यूज चैनलों को माफी भी मांगनी पड़ी.
लेकिन जिस वक्त मीडिया चैनलों को अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए सरकार से सवाल करना चाहिए था, उस वक्त मीडिया तब्लीगी-तब्लीगी खेलने में व्यस्त थी. तब्लीगी जमात की आड़ में धर्म विशेष को मीडिया द्वारा जानबूझकर लगातार टारगेट किया गया. भाजपा के कई बड़े नेताओं द्वारा भी तब्लीगी जमात पर सवालिया निशान खड़े किए गए और कुछेक मूर्खों की आड़ में धर्म विशेष के खिलाफ भी आधारहीन बातें करके नफरत फैलाने की कोशिश की गई.
सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या मामले में भी यही गलतबयानी दोहराई गई. सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या मामले में टीवी न्यूज चैनलों के माध्यम से भारतीय मीडिया ने कई डिबेट कराई और दावा किया गया कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या नहीं की है, बल्कि सुशांत सिंह राजपूत की हत्या हुई है. बॉलीवुड के कई कलाकारों को सुशांत सिंह राजपूत के मुद्दे पर भारतीय मीडिया चैनलों द्वारा लपेटने की कोशिश हुई. भारतीय मीडिया द्वारा सलमान खान, शाहरुख खान जैसे कलाकारों और करण जौहर जैसे फिल्मकारों को भी इस केस में लपेटने की या कहें कि जानबूझकर बदनाम करने की कोशिश की गई.
बाद में भारतीय मीडिया ने अपना सारा ध्यान रिया चक्रवर्ती पर लगाया और लगातार गलत और बेलगाम रिपोर्टिंग की गई. बेमतलब डिबेट की गई, बेलगाम आरोप लगाए गए, जिसकी वजह से रिया चक्रवर्ती लगभग 1 महीने तक जेल में रहीं. जबकि रिया चक्रवर्ती पर सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या मामले में कोई भी आरोप साबित नहीं हुए थे. लेकिन मीडिया दिन-रात रिया चक्रवर्ती को विलेन साबित करने में लगी रही. तब्लीगी जमात और सुशांत सिंह राजपूत दोनों ही केस में मीडिया ने मानो खुद को ही सर्वोच्च अदालत मान लिया.
मीडिया खुद अपने कार्यक्रम करती थी, खुद आरोप लगाती थी और खुद ही फैसले सुनाती थी. हालांकि अब यह दोनों मुद्दे गायब हो चुके हैं लेकिन इन मुद्दों के माध्यम से मीडिया ने देश के जरूरी मुद्दों से ध्यान हटाने की और सरकार को जवाबदेही से बचाने की भरपूर और कामयाब कोशिश की, वर्ना तब्लीगी के समय कोरोना और सुशांत के समय चीनी घुसपैठ और कृषि बिल का मुद्दा होता जो सरकार के खिलाफ जनमत तैयार करता.
सुशांत सिंह राजपूत के मामले में तो मीडिया ने महाराष्ट्र सरकार को भी कटघरे में खड़ा कर दिया. यहां तक कहा गया कि मुजरिम को महाराष्ट्र सरकार बचा रही है, उद्धव ठाकरे बचा रहे हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे को भी लपेटने की कोशिश की गई. कहा गया कि सीबीआई जांच होगी तो मुंबई पुलिस बेनकाब हो जाएगी, हालांकि सीबीआई जांच में भी यही कहा गया कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की है.
पक्षपाती और गैरसंवैधानिक न्यायपालिका
सर्वोच्च अदालत ने गत दिनों बॉम्बे हाईकोर्ट को अर्णव गोस्वामी केस में फटकार लगाते हुए कहा कि “किसी की 1 दिन की आजादी भी गैरकानूनी ढंग से नहीं छीनी जा सकती, और पत्रकारों को बोलने की आजादी है.” मतलब यह हुआ कि हमारे माननीय जज साहब को यह लगता है कि पत्रकारों को कुछ भी कहने की स्वतंत्रता है, बिना आधार के किसी पर भी कोई भी आरोप लगाने की स्वतंत्रता है, लेकिन अगर कोई आत्महत्या करता है और अपने सुसाइड नोट में उस पत्रकार का नाम लिखता है तो वहां की लोकल पुलिस और उस राज्य की सरकार उस पत्रकार को गिरफ्तार करके पूछताछ भी नहीं कर सकती!
हमारे सर्वोच्च न्या़ालय के अनुसार अगर पत्रकारों को स्वतंत्रता है या यूं कहें कि किसी की 1 दिन की आजादी भी गैरजरूरी ढंग से नहीं छीनी जा सकती तो फिर पिछले कुछ सालों में देखने को मिला है कि उत्तर प्रदेश में कई लोकल पत्रकारों को जबरदस्ती परेशान किया गया, उन पर फर्जी एफआईआर तक दर्ज की गई और उन्हें जेल भी भेजा गया. महीनों तक कई पत्रकार सलाखों के पीछे थे और कुछ तो अभी भी हैं, तो क्या उनके लिए आजादी का मतलब कुछ दूसरा है? सर्वोच्च न्यायालय अर्णब के केस में व्यक्ति विशेष की आजादी की बात कर रहा है या देश के हर नागरिक की?
अगर किसी भी नागरिक की आजादी की बात सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही है तो फिर जो दूसरे पत्रकार उत्तर प्रदेश से लेकर अन्य तमाम भाजपा शासित राज्यों में फर्जी एफआईआर का शिकार हुए हैं या फिर बगैर एफआईआर ही जिन्हें जेल जाना पड़ा है, उनके लिए हमारे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आगे बढ़कर संज्ञान क्यों नहीं लिया क्या? सिर्फ अर्णब का मसला ही नहीं है, देश से जुड़े पिछले कई बड़े फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद के पक्षपाती और असंवैधानिक होने के सबूत दिए हैं. फिर चाहे वो बाबरी विंध्वंस का फैसला हो, राममंदिर का फैसला रहा हो, लोकपाल पर फैसला रहा हो या 370 हटाने पर फैसला हो. इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायलय के 4 जजों द्वारा की गई प्रैस कॉन्फ्रेंस में न्यायपालिका में सरकार के हस्तक्षेप का आरोप लगाए जाने को भी सरकार की तरह भारतीय आंख मूंदकर खारिज़ नहीं कर सकते.
तानाशाही की ओर बढ़ती बेखौफ़ सरकार
पिछले कुछ महीनों में गैर जरूरी मुद्दों पर जिस तरह से मीडिया चैनलों द्वारा रिपोर्टिंग हुई है और मीडिया चैनलों द्वारा जो गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया गया है, उसको लेकर भारतीय मीडिया की पूरे दुनिया में थू-थू हुई है. लेकिन हैरत और परेशानी की बात यह है कि हमारी केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत में कहा है कि भारतीय मीडिया जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग कर रही है. भारतीय मीडिया जरूरी मुद्दे उठा रही है और जरूरी ढंग से उस पर रिपोर्ट कर रही है. वर्तमान केंद्र सरकार को मौजूदा भारतीय मीडिया का गैर जिम्मेदाराना रवैया ही जिम्मेदाराना लगता है, इसीलिए मौजूदा सरकार सर्वोच्च अदालत में भारतीय मीडिया का बचाव करते हुए नजर आई है.
केंद्र सरकार ने कहा है कि भारतीय मीडिया सही रिपोर्टिंग कर रही है, जबकि ऑनलाइन न्यूज प्लेटफॉर्मों की खबरों को झूठी, फर्जी और तथ्यहीन बताया है. इतना ही नहीं, मोदी सरकार ऑनलाइन न्यूज प्लेटफॉर्मों की निगरानी और उन पर भी अपना पूरा नियंत्रण चाहती है. केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत में कहा है कि ऑनलाइन न्यूज़ प्लेटफॉर्म गलत सूचनाएं दिखा रहे हैं, उन पर नजर रखने की जरूरत है. कुल मिलाकर मतलब यह है कि जो सरकार की नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए गैर जरूरी मुद्दे उठाकर अपने आप को ही सर्वोच्च अदालत समझने लगी है वो भारतीय मीडिया हमारी केंद्र सरकार को सही लग रही है, क्योंकि मीडिया वर्तमान सरकार की नाकामियों पर पर्दा डालने का काम कर रही है.
वहीं दूसरी तरफ जो ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के न्यूज लिंकों के माध्यम से केंद्र सरकार की नीतियों और कार्यशैली पर सवाल खड़े हो रहे हैं, केंद्र सरकार की नाकामियों को सार्वजनिक किया जा रहा है उस पर मोदी सरकार पाबंदी लगाना चाहती है. उपरोक्त तर्कों और तथ्यों के आधार पर यही सच प्रतीत होता है कि सरकार और संस्थाएं न सिर्फ बेखौफ और बेलगाम हो चुकी हैं, बल्कि बेशर्म भी हो गई हैं. ये अब खुद ही खुल कर खुद को पूरी तरह एक्सपोज कर रही हैं, इन्हें किसी बात का, किसी चीज का भी डर नहीं है, यह सच में खुद को लोकतंत्र से ऊपर समझने लगी हैं, देश की जनता से ऊपर समझने लगी हैं. या फिर डरने की कोई वजह ही नहीं है इनके पास? अगर वजह नहीं है तो क्यों नहीं है? क्या सब कुछ केंद्र सरकार के ही कंट्रोल में है?
बात फिर वही है कि बेलगाम हो गई हैं सरकार और संस्थाएं. इसकी वजह इनपर कोई अंकुश ना होना है. लोकतंत्र में सरकार पर अंकुश लगाने के 3 प्रमुख माध्यम हैं, विपक्ष, न्यायपालिका और मीडिया. इन तीनों का हाल कुछ यूं है कि ये सरकार पर रोक लगाने का कार्य करने की जगह सरकार के और भी दुसाहसी होने की वजह बन गए हैं. देश में विपक्ष के नाम पर सिर्फ एक राहुल गांधी ही नजर आते हैं और उन्हें आज भी देश का एक बड़ा वर्ग गंभीरता से नहीं लेता. अत: मजबूत और संयुक्त विपक्ष के आभाव में सरकार अपने मनमाफिक एजेंडे पर लगातार दृढ़ता से बेरोक-टोक बढ़ती जा रही है. पिछले कुछ सालों में अदालत के फैसले भी एक तरफा नजर आए हैं, अदालत के फैसलों पर भी सवालिया निशान खड़े हुए हैं. यह लोकतंत्र के लिए कतई सही संकेत नहीं है.
लेकिन इस पर भी कोई कार्यवाही करना सरकार के हाथ में है और न्यायपालिका के पतन के लिए जिम्मेदारी ही सरकार है, तो सुधार और बदलाव की गुंजाइश नहीं बचती. रही बात मीडिया की तो मीडिया के बारे में इतना कुछ बोला, लिखा, पढ़ा और कहा-सुना जा चुका है की अब इस पर लिखना भी समय और शब्द दोनों का अपमान प्रतीत होता है. मीडिया में कॉर्पोरेट का दखल समय रहते न रोक पाने की गलती कांग्रेस के साथ देश को भी बहुत भारी पड़ रही है, लेकिन कुल नुकसान कितना रहेगा, ये समय के गर्भ में है. अब जनता का सरकार की सहूलियत के हिसाब से ब्रेनवॉश करती मीडिया और सरकार की हर बड़े मुद्दे पर हिफ़ाजत करती न्यायपालिका साथ हो तो सरकार का बेलगाम और बेखौफ़ होना निश्चित है. इसपर बदलाव सिर्फ आम आवाम ही ला सकती है. परंतु यक्ष प्रश्न यही है कि क्या भारतीय जनता इतना जागरूक है? अथवा समय रहते जागरूक हो पाएगी?
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