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क्या है GHMC का समीकरण, जिसके लिए BJP ने लगा दी है जान

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ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव (GHMC) के रास्ते बीजेपी को तेलंगाना के भीतरी इलाकों में ज्यादा सियासी आधार बढ़ाने का मौका नजर आ रहा है. यही वजह है की बीजेपी ने केसीआर और असदुद्दीन ओवैसी के मजबूत दुर्ग हैदराबाद में अपने दिग्गज नेताओं की फौज उतार दी है.
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव के लिए मतदान 1 दिसंबर को होना है. यह नगर निगम देश के सबसे बड़े नगर निगमों में से एक है. ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम 4 जिलों तक फैला है. इस नगर निगम में हैदराबाद, रंगारेड्डी, मेडचल-मलकजगिरी और संगारेड्डी आते हैं. GHMC में 150 म्यूनिसिपल वार्ड/सीटें आती हैं.
इस पूरे इलाके में 24 विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं. इस नगर निगम में तेलंगाना के 5 लोकससभा सीटें आती हैं. बीजेपी के प्रचारकों में गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और प्रकाश जावड़ेकर हैं, वहीं बीजेपी के भगवा ब्रांड एम्बेसडर कहे जाने वाले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बीजेपी युवा मोर्चा के अध्यक्ष तेजस्वी सूर्या शामिल हैं.
2016 में हुए ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव पर नजर दौड़ाएं, तो हम देखते हैं, टीआरएस ने 150 वार्डों में से 99 वार्ड में जीत दर्ज की थी. जबकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने 44 सीटें जीती थी. वहीं, बीजेपी महज चार नगर निगम वार्ड में जीत दर्ज कर सकी थी. कांग्रेस को महज दो वार्डों में ही जीत मिली थी, जबकि टीडीपी को एक सीट से संतोष करना पड़ा था.
तेलंगाना विधानसभा समीकरण
वहीं ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम में विधानसभा समीकरण को देखें, तो 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने हैदराबाद में अपनी छह सीटें खो दी थीं, पार्टी सिर्फ एक सीट बचाने में कामयाबी हासिल की थी. उस सीट पर बीजेपी के राजा सिंह ने जीतकर बीजेपी की लाज बचाई थी. तेलंगाना में इस महीने की शुरुआत में डबका विधानसभा उपचुनाव में मिली जीत ने बीजेपी के हौसले को बढ़ा दिया है, इस सीट पर पहले केसीआर की पार्टी का कब्जा था.
लेकिन अगर पूरे तेलंगाना विधानसभा समीकरण की बात की जाए तो बीजेपी कमजोर नजर आती है. 2018 के चुनाव में टीआरएस ने दो तिहाई बहुमत हासिल कर सत्ता में वापसी की थी. 2018 के तेलंगाना विधानसभा चुनाव में टीआरएस को 88 सीटें मिली थी. 21 सीटें जीत कर कांग्रेस दूसरे नम्बर पर रही. 7 सीटें जीतकर तीसरे नम्बर पर ओवैसी की पार्टी AIMIM रही. बीजेपी को 2013 के मुकाबले 4 सीटों के नुकसान के साथ सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा. 2020 में हुए विधानसभा के उपचुनाव में टीआरएस की एक सीट बीजेपी के खाते में गई.
क्या कहता है तेलंगाना का लोकसभा समीकरण?
अगर 2019 में हुए तेलंगाना के लोकसभा सीटों पर हुए चुनाव के समीकरण पर ध्यान दें, तो यहां विधानसभा के मुकाबले बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन पार्टी को टीआरएस से आधी सीटें ही मिलीं. टीआरएस को लोकसभा चुनाव में 9 सीटें मिलीं. दूसरे नम्बर पर बीजेपी रही जिसने 4 सीटों पर जीत दर्ज की. कांग्रेस का प्रदर्शन बीजेपी के करीब रहा और उसे 3 सीटें मिली. AIMIM को सिर्फ 1 सीट पर ही जीत हासिल हुई. भारतीय जनता पार्टी के नेता जिस तरह हैदराबाद में ‘जिन्ना’ को याद कर रहे हैं और “सर्जिकल स्ट्राइक” की बात कर रहे हैं, उससे ऐसा लगता नहीं कि तेलंगाना की राजधानी में सिर्फ म्युनिसिपल चुनाव होने वाले हैं.
हैदराबाद के स्थानीय चुनाव में पार्टी ने अपने सभी बड़े नेताओं को झोंक दिया है. पार्टी चीफ जे पी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे कई केंद्रीय मंत्री वहां चुनाव प्रचार कर रहे हैं.  सवाल यह है कि भाजपा वृहद हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (जीएचएमसी) जैसे स्थानीय निकाय के चुनावों को लेकर इतनी उत्साहित क्यों है? उसने वहां इतना बड़ा दांव क्यों लगाया है? इसके दो पक्ष हैं- हैदराबाद भाजपा के लिए जंग का मैदान है. तेलंगाना में भाजपा अपने पैर पसारना चाहती है.
हैदराबाद या जंग का मैदान
हैदराबाद पर कब्जा भाजपा के लिए सिर्फ चुनावी जंग नहीं, एक सैद्धांतिक लड़ाई भी है. हिंदुत्व परिवार के लिए हैदराबाद का वजूद विवाद का विषय है. भाजपा ‘हैदराबाद’ को भाग्यनगर नाम देना चाहती है और काफी समय से शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्मारक चारमीनार पर बहस छेड़े हुए है. भाजपा के युवा चेहरा तेजस्वी सूर्या ने हैदराबाद में एक सार्वजनिक सभा में कहा भी था, ओवैसी को वोट देने का मतलब है, मोहम्मद अली जिन्ना को वोट देना.
पार्टी ने एआईएमआईएम को ओसामा बिन लादेन से भी जोड़ा था. हालांकि एआईएमआईएम पर बीजेपी की बी पार्टी होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन हिंदूवादी संगठन एआईएमआईएम के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल क्यों करते हैं? हिंदूवादी संगठन ‘हैदराबाद’ पर इतिहास को कुरेदने हैं- यह दक्खन में मुसलमान वर्चस्व का प्रतीक है जोकि मराठा काल और ब्रिटिश शासन के दौरान भी बचा रहा.
यह वर्चस्व हैदराबाद के विलय के बाद टूटा और कुछ समय तक कमजोर रहा. लेकिन 70 के दशक के आखिर में एआईएमआईएम ने फिर से सांसें लेनी शुरू कीं और पुराने शहर की राजनीति ने नई करवट बदली. वह प्रभुत्व दोबारा कायम होना शुरू हुआ. अब जब मजलिस महाराष्ट्र और बिहार की ओर बढ़ चली है तो हिंदूवादी ताकतों ने उसे उसके गढ़ में ही रौंदने की ठानी है. तेजस्वी सूर्या ऐसे ही मनोभाव प्रकट करते हैं, जब वह कहते हैं कि चूंकि लोगों ने हैदराबाद में ओवैसी को वोट दिया, इसलिए वह बिहार में चुनाव लड़ पाए. यह जरूरी है कि उन्हें यहां हराया जाए.
हिंदूवादी संगठन तेलंगाना को मुसलमान शासक यानी निजाम के खिलाफ हिंदुओं के प्रतिरोध के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि वहां मुसलमानों के शासन से पहले के ‘गौरव’ को जगाया जाना चाहिए. लेकिन तेलंगाना को लेकर टीआरएस की अवधारणा कुछ और है. वह इतिहास को बहुत बाद से देखती है. 1952 का मुलकी प्रदर्शन, फिर 1969 में अलग राज्य की मांग वाला आंदोलन और तेलंगाना प्रजा समिति का गठन और अंत में 2011 के प्रदर्शन जिसमें टीआरएस ने भी अहम भूमिका निभाई थी.
सो, टीआरएस तेलंगाना के इतिहास को हिंदू बनाम मुसलमान के लिहाज से नहीं देखती, बल्कि काकतीय, कुतुबशाही और आसफ़ जाही वंश की उत्पत्ति मानती है. हैरानी की बात नहीं कि मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव जिस वेलम्मा जाति के हैं, वह राजशाही की वफादार रही है और उसका इस पर बहुत अधिक असर रहा है. इसलिए भाजपा के नरेटिव से टीआरएस का नेरेटिव एकदम अलग है और लेफ्ट से भी- चूंकि वे लोग तेलंगाना को 1946 में निजाम के खिलाफ किसान आंदोलन के लिहाज से देखते हैं.
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