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हरिवंश का पुरे देश को शुक्रगुजार होना चाहिए जिसने देश को जगा दिया

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ज़्यादा दिन की बात तो है नहीं, सितंबर के आख़िरी पखवाड़े में ही तो राज्यसभा में हंगामे के बीच उप सभापति हरिवंश ने कृषि बिल को भारी विरोध और हंगामे के बीच पास करा दिया था. बीस सितंबर ही तो था जब यह ख़बर आई थी. सत्तारूढ़ दल भी बमबम था और हरिवंश और बड़ी कुर्सी की कतार में क़रीब आ गए. हरिवंश बड़े पत्रकार रहे हैं. समाजवादी भी रहे हैं.
समाजवादी की आलोचना समाजवादी खुल कर करता है. पर कभी संघ के किसी प्रचारक को देखा है जो संघ के किसी शीर्ष नेता की आलोचना की हो. न याद आए तो कभी गोविंदाचार्य को भी याद कर लें. मुखौटा से आगे की सीमा उन्होंने भी कभी नहीं लांघी. खैर अब लगता है हरिवंश ने देश पर बड़ा उपकार किया है. उन्होंने तो देश को जगा दिया.
अश्वमेघ का वह घोड़ा जो दौड़ता जा रहा था उसे किसानों ने दिल्ली की सीमा पर ही बांध दिया है. वह सरकार जो सिर्फ़ अपने मन की बात करती रही है वह कभी दूसरे के मन की बात सुनती कहाँ थी. दिल्ली के दरवाजे पर बैठे इन किसानों ने इस सरकार को मजबूर कर दिया है कि वह किसानों के मन की भी बात सुने. और सरकार से बात करने गए किसान अपनी रोटी-दाल साथ लेकर गए थे बात करने.
इस सरकार की हेकड़ी पंजाब के किसानों ने निकाल दी है तो इसका इसका बड़ा श्रेय समाजवादी धारा से संघ के खेमे में पहुँचे हरिवंश को भी तो देना चाहिए. यह सरकार जो हेकड़ी और हथकंडों की सरकार मानी जाती है वह किससे बात करती थी. कश्मीर सामने है. निपटा दिया न सबको. सीएए आंदोलन को देखा था या नहीं. लखनऊ के चौराहों पर पोस्टर लगवा दिए थे. क्या किसी सरकार में यह हिम्मत है पंजाब के किसानों का पोस्टर पंजाब या हरियाणा में लगवा सके.
चूक यहीं हो गई. पंजाब को ये समझ नहीं पाए. वह हिंदू-मुसलमान के खेल में न फँसा है न फँसेगा. केंद्र का करिश्माई नेतृत्व पंजाब पहुँचते-पहुँचते हाँफने लगता है. उसका इतिहास-भूगोल बहुत अलग है. पंजाब का किसान आंदोलन भी बहुत अलग है. इस आंदोलन में नौजवान हैं, महिलाएँ हैं तो बुजुर्ग भी हैं. ये किसान हैं. वही किसान जिसके सारे बेटे केंद्र की सरकार में मंत्री हैं. ये सब अपने को किसान का बेटा बताते हैं और पिता समान किसान को गुमराह घोषित कर देते हैं. ऐसे बेटे हैं ये.
दिल्ली की दहलीज पर बैठे किसानों से कोई आईटी सेल नहीं लड़ सकती यह तो समझ लेना चाहिए. बहरहाल, इस आंदोलन के साथ वर्ष 1988 के आंदोलन पर भी नज़र डाल लें. वर्ष 1988 का अक्टूबर महीना था. तारीख़ थी 25 अक्टूबर जब मैं बोट क्लब के एक छोर पर किसान नेताओं से बात कर रहा था. जनसत्ता अख़बार के लिए किसान आंदोलन की कवरेज की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
तब भी किसान ट्रैक्टर लेकर आये थे और सीधे बोट क्लब तक पहुँच गए थे. दिल्ली पुलिस ने शुरू में रोकने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन बाद में किसानों की भारी संख्या देख कर ‘ऊपर’ तक बात की और फिर इजाज़त दे दी. किसान आराम से बोट क्लब पहुँच गये. शाम होते-होते चूल्हे जल चुके थे. कुछ मवेशी भी वे ले आए थे दूध के लिए. जगह-जगह चौपाल लगी हुई थी. चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के साथ कुछ अन्य किसान संगठनों के नेता भी बैठे थे.
समूचा बोट क्लब एक गाँव में बदल चुका था. ख़ास बात यह थी कि सरकार और प्रशासन ने किसानों के लिए पीने के पानी के लिए टैंकर की व्यवस्था की थी. तब बोतलबंद पानी का चलन भी नहीं था. आज तो किसानों पर पानी बरसाया जा रहा है. पहले टिकैत का कार्यक्रम एक दिन का ही घोषित था. पर टिकैत से मैंने जब पहले बात की तो साफ़ लगा वे अपनी माँग मनवा कर ही जाएँगे. हालाँकि मीडिया को लगा था वे एक दिन बाद लौट जाएँगे.
न्यूज़ रूम में कोई मानने को तैयार नहीं था. संघ से जुड़े एक वरिष्ठ संवाददाता का आकलन था तीन लाख लोग से ज़्यादा नहीं थे. चीफ़ रिपोर्टर कुमार आनंद ने बोट क्लब की लंबाई चौड़ाई की जानकारी ली और कई अन्य तथ्य भी जाँचा-परखा. फिर तय हुआ संख्या पाँच लाख ही जाएगी. वही गई भी. और वही संख्या आज तक सही मानी जाती है.
एक दौर वह था और एक दौर आज का है
खैर एक दौर वह था और एक दौर आज का है. पिछले दस दिनों में दिल्ली में आंदोलन कर रहे क़रीब दर्जन भर किसान नेताओं से मैंने बात की है जिसमें पंजाब में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे दर्शनपाल हों या राष्ट्रीय नेता वीएम सिंह, राकेश टिकैत, राजू शेट्टी, हन्नान मुल्ला या फिर डॉ. सुनीलम और अतुल कुमार अंजान. ये सब अपने कार्यक्रम में लगातार आ भी रहे हैं. कुछ फर्क है उस और इस आन्दोलन में.
तब राजीव गाँधी थे जो जबरन कोई टकराव हो ऐसे स्वभाव के भी नहीं थे. न ही दमन उत्पीड़न वाली रणनीति पर चलने वाले थे. तब विपक्ष में चंद्रशेखर, देवीलाल जैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले नेता थे जो आंदोलन का समर्थन करने टिकैत से धरना स्थल पर मिलने भी गए थे. पर आज न तो चंद्रशेखर और देवीलाल के कद के नेता बचे हैं न किसानों के प्रति वह सम्मान बचा है.
वर्ना केंद्र से कुछ तो महत्वपूर्ण मंत्री बात करने सामने आते. बहरहाल, केंद्र ने आज जो रुख अपनाया है उससे उम्मीद जग रही है. सरकार को यह समझना चाहिए किसान जब भी दिल्ली आया है वह खाली हाथ नहीं लौटा है. इस बार भी नहीं लौटेगा, यह सोचकर ही खेत गाँव से वह दिल्ली आया है.
(अंबरीष कुमार के फ़ेसबुक वाल से)
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