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वन नेशन,वन इलेक्शन को PM ने बताया है देश की जरूरत. जान लीजिये नफा नुकसान

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बीजेपी और खुद पीएम मोदी वन नेशन वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं. उनका कहना है कि देश में अलग-अलग चुनावों में होने वाले खर्च और मैन पावर से बचने के लिए एक साथ चुनाव कराए जाने चाहिए. अब एक बार फिर पीएम मोदी ने एक देश एक चुनाव की बात की है.
पीएम मोदी ने संविधान दिवस के मौके पर पीठासीन अधिकारियों को संबोधित करते हुए इसका जिक्र किया. पीएम मोदी ने कहा कि राज्य की विधानसभाओं में पुराने उलझे हुए कानूनों को हटाने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए. इसके बाद उन्होंने वन नेशन वन इलेक्शन का जिक्र करते हुए कहा कि ये भी एक बड़ा मुद्दा है. पीएम ने कहा, सिर्फ ये चर्चा का विषय नहीं है, बल्कि ये भारत की जरूरत है. हर कुछ महीने में भारत में कहीं न कहीं बड़े चुनाव हो रहे होते हैं. इससे विकास के कार्यों पर जो प्रभाव पड़ता है, उस आप सभी भली भांति जानते हैं. ऐसे में वन नेशन वन इलेक्शन पर गहन मंथन और अध्ययन आवश्यक है.
पीएम मोदी ने कहा कि इसमें पीठासीन अधिकारी मार्गदर्शन कर सकते हैं. इसके साथ ही लोकसभा हों, विधानसभा हो या पंचायत चुनाव हों, इनके लिए एक ही वोटर लिस्ट काम में आए. इसके लिए सबसे पहले हमें रास्ता बनाना होगा. आज हर एक के लिए अलग-अलग वोटर लिस्ट है, हम क्यों खर्चा कर रहे हैं? समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं? पहले तो उम्र में फर्क था, लेकिन अब जरूरत नहीं है. पीएम मोदी ने कहा कि अब पूर्ण डिजिटलीकरण का समय आ चुका है. उन्होंने कहा कि हमें एक लक्ष्य तय करना होगा और सोचना होगा कि कब तक हम इसे साकार कर सकते हैं.
कई बीजेपी नेता कर चुके हैं पैरवी
बता दें कि ये पहला मौका नहीं है, जब वन नेशन वन इलेक्शन का जिक्र किया गया हो. इससे पहले भी बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने इसकी पैरवी की है. वन नेशन वन इलेक्शन का आईडिया नया नहीं है, इसे सबसे पहले 1983 में खुद चुनाव आयोग ने दिया था. चुनाव आयोग ने कहा था कि एक ऐसा सिस्टम तैयार करना चाहिए, जिसमें लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं.
वन नेशन वन इलेक्शन के पीछे तर्क
अब आपको बताते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार और अन्य लोग जो वन नेशन वन इलेक्शन का समर्थन कर रहे हैं उनके इसके पीछे क्या तर्क हैं. सबसे पहला तर्क ये है कि वन नेशन वन इलेक्शन से चुनावों में खर्च होने वाले करोड़ों रुपये बचाए जा सकते हैं. देश में होने वाले चुनावों की बार-बार तैयारी करने से छुटकारा मिलेगा. पूरे देश में चुनावों के लिए एक ही वोटर लिस्ट होगी. सरकारों के विकास कार्यों में रुकावट नहीं आएगी
वन नेशन वन इलेक्शन के खिलाफ तर्क
अब भले ही केंद्र सरकार वन नेशन वन इलेक्शन को अपने ड्रीम प्रोजेक्ट की तरह पेश कर रही हो, लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जो इसके खिलाफ हैं. इसका विरोध करने के लिए उनके पास अपने तर्क हैं. उनका कहना है कि अगर ये लागू होता है और देश में किसी एक पार्टी की लहर चल रही हो तो लगभग पूरे देश में वही पार्टी चुनाव जीतेगी. जिससे पूरे देश में एक ही पार्टी का शासन हो जाएगा. इसके अलावा ये भी कहा जाता है कि वन नेशन वन इलेक्शन से राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में मतभेद और ज्यादा बढ़ सकते हैं. इससे राष्ट्रीय पार्टियों को बड़ा फायदा पहुंच सकता है और छोटे दलों को नुकसान होने की संभावना है. साथ ही आर्टिकल 356 का गलत इस्तेमाल हो सकता है.
वन नेशन वन इलेक्शन का मतलब ‘वोटबंदी’ तो नहीं है?
आखिर क्यों प्रधानमंत्री मोदी मतदाताओं को लोकसभा और विधानसभा के अलग-अलग समय पर होने वाले चुनावों से वंचित रखना चाहते हैं? क्या आपने कभी ये महसूस किया कि वोटिंग की कतार में खड़े रहे लोगों का उत्साह और खुशी देखते ही बनती है. वोटिंग एक शक्तिशाली उत्सव है, लेकिन अब इसके पांच साल में केवल एक बार इस्तेमाल आयोजित करने की बात हो रही है. क्या आपने मतदान के बाद लोगों की अपनी उंगलियों के निशान दर्शाती हुई तस्वीर भी देखी? वे बहुत खुश दिखते हैं, जैसे वो एक युद्ध जीत गए हो.
प्रधानमंत्री मोदी की मानें, तो बार-बार होने वाले मतदान (अलग-अलग समय पर लोकसभा और विधानसभा) का मतलब है सरकारी खजाने का नुकसान, प्रशासन से विचलन, सुरक्षाबलों की क्षमता की बर्बादी और अच्छे अधिकारियों-शिक्षकों का चुनाव ड्यूटी पर अपना बहुमूल्य समय बर्बाद करना. इनमें से कोई तर्क दमदार नहीं है. सरकारी खजाने की हानि एक अजीब तर्क है. वयस्क मताधिकार के मौलिक अधिकारों का पालन करने के लिए सार्वजनिक खर्च कोई आधार नहीं हो सकता.
इसी प्रकार से चुनाव ड्यूटी पर अच्छा अधिकारी बर्बाद करने का तर्क बिलकुल गलत है. जिसने भी पुरस्कार विजेता फिल्म ‘न्यूटन’ देखी है, वह आपको बताएंगे कि एक अच्छा अधिकारी सिर्फ अपने काम में ही नहीं, बल्कि चुनाव जैसे एक पवित्र लोकतांत्रिक संस्थान को बनाए रखने के काम में भी जान की बाजी लगाता है. सभी बाधाओं के विरुद्ध, ‘न्यूटन’ देश के दूर के हिस्से में लोकतंत्र को सुरक्षित रखता है. ऐसे में प्रधानमंत्री का यह कहना कि चुनाव एक अपव्यय है, ऐसे उज्ज्वल अधिकारियों पर अन्याय है, जो चुनाव के काम को एक पवित्र राष्ट्रीय कर्तव्य मानते हैं. लोकसभा के मुकाबले अलग समय पर होने वाले राज्यों के चुनाव लोगों को जबरदस्त शक्ति देते हैं.
आपातकालीन के बाद इंदिरा गांधी को 1977 में केंद्र से इस्तीफा देना पड़ा था. 1977 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और बिहार में मुंह की खानी पड़ी थी. इसका अर्थ यह है कि आपातकाल से पीड़ित लोगों को इंदिरा गांधी को राज्य में भी हराने के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा. गुजरात, दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव सटीक उदाहरण हैं. 2014 के आम चुनावों में बीजेपी ने इन राज्यों में भारी जीत दर्ज की थी, लेकिन बीजेपी के विकास के अजेंडे को गायब होता देख और दक्षिणपंथियों की गाय के नाम पर हो रही हिंसा के मद्देनजर दिल्ली और बिहार की उसी जनता ने केवल एक या दो साल में ही बीजेपी को सबक सिखाया था.
गुजरात में तो बीजेपी ने 2014 में सारी 26 सीटें जीती थीं. लेकिन केवल तीन साल में बीजेपी के कई कट्टर समर्थक (जैसे पटेल समुदाय) बीजेपी की किसान नीति के चलते ‘हमारी भूल कमल का फूल’ कहकर पार्टी के खिलाफ खड़े हो गए. बीजेपी राज्य चुनाव में हारते-हारते बच गयी और 100 सीटों के अंदर सिमट गयी. जाहिर है 2014 के बाद बिहार दिल्ली या गुजरात के चुनाव केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ दिया गया वोट था.
राज्यसभा में अभी भी बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव का अलग समय पर होना राज्यसभा को एक अलग पहचान देता है, जो लोकसभा से अलग भी हो सकता है. दोनों सदन में एक पार्टी का अंकुश होना लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है. केंद्र और राज्यों में एक साथ वोटिंग से दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार बनाने की गुंजाइश रहती है, खासकर 2014 जैसे लहर वाले चुनावों में. अगर लोकसभा और राज्यसभा एक ही पक्ष के वर्चस्व में आते हैं, तो मनमानी तरीको से कानूनों को बदलने में केंद्र सरकार को कठिनाई नहीं होगी.
संविधान के ढांचे में मूलभूत बदलाव जैसे खतरनाक कदम भी उठ सकते हैं
संविधान के ढांचे में मूलभूत बदलाव जैसे खतरनाक कदम भी उठ सकते हैं. ऐसे हालात में खासकर तब जब बीजेपी के संसद अनंत हेगड़े ये घोषित कर चुके है कि संविधान बदलने के लिए ही पार्टी सत्ता में आई है. अगर मतदाताओं को चुनावों में बार बार अवसर नहीं मिलते हैं, तो वो उनके मौलिक मतदान अधिकार के हथियार से बुरी तरह से हाथ धो बैठेंगे. हर एक चुनाव के साथ, लोकतंत्र केवल मजबूत और मतदाता और ज्यादा समझदार बनता है. राजनेताओं को उनकी गलती का सबक देने का अधिकार पांच साल तक रोके रखना आम जनता के लिए धोखा होगा. केंद्र की सरकार की नीतियों से परेशान आम जनता उनका यह हथियार राज्य चुनावों में उपयोग कर सकती है, फिर चाहे वो कांग्रेस हो या बीजेपी.
मोदी जी ने नोटबंदी करके सबको चौका दिया था. एकतरफा लिए गए इस फैसले से लाखों करोड़ों लोग प्रभावित हुए और कई सारे मृत भी. ‘वन नेशन,वन इलेक्शन’ नोटबंदी से भी बढ़कर एक प्रकार की वोटबंदी हो सकता है, जो मतदान का अधिकार पांच साल तक छीन लेती है. धन और समय के बचत के आड़ में इसे पेश करने का प्रयास किया जा रहा है. लोकतंत्र में विश्वास करने वाले उन सभी राजनेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने इस विचार का पुरजोर विरोध करना चाहिए.
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