सीकर/ खाटूश्यामजी. लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती..। सोहनलाल द्विवेदी की यह पंक्तियां जिले के मंढा गांव की जरीना बनों पर सटीक बैठती है। जिसने अपने मां के फर्ज को बखुबी निभाते हुए अपने जज्बे से दो वक्त की रोटी के जुगाड़ से जूझते परिवार को आत्मनिर्भर बनाने की जिद पूरी की, बल्कि अब वह गांव की गरीब महिलाओं के सशक्तिकरण की भी पर्याय बन गई है।
पहले परिवार को उबाराजरीना के छह बेटियां व एक बेटा है। चार साल पहले तक पति शेर मोहम्मद मणिहार मजदूरी करते थे। जो 9 सदस्यीय परिवार के लिए पूरी नहीं पड़ती थी। हमेशा काम नहीं रहने पर कभी नौबत दो वक्त के खाने का जुगाड़ नहीं होने तक पहुंच जाती थी। ऐसे में लाचारी व बेबसी की जिंदगी से आजादी के लए जरीना ने खुद परिवार को संबल देने की ठानी। जरीना ने घर से ही पहले सिलाई और फिर चूडिय़ां बनाने का काम शुरू किया। श्री श्याम राजीविका क्लस्टर मैनेजर शशिबाला के सहयोग से उसे ऋण भी मिल गया। जिससे काम को गति मिल गई और पति को चूडिय़ां बेचने के लिए मेलों में भेजना शुरू कर दिया। देखते ही देखते काम चल पड़ा और अब एक दुकान के साथ वह परिवार का पालन बेहतरीन ढंग से कर रही है।
फिर समाज का लिया जिम्माआर्थिक संबल मिलने के बाद जरीना परिवार तक ही सीमित नहीं है। वह जनहित में भी जुटी है। गांव की कई गरीब महिलाओं को भी वह आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित करती है। जरीना ने महिलाओं को राजीविका से जोड़कर श्री श्याम क्लस्टर खाटूश्यामजी से ऋण दिलाया। जिसमें मंजू देवी ने किराणा की दुकान खोली, सोनी देवी को पशु सखी व आशा देवी कृषि सखी, चंदा मिनी सीआरपी व युवती बबलेश ने ई मित्र की दुकान खोलकर बैंक में बीसी बनी। इसके जरीना ने स्वयं स्वरोजगार का प्रशिक्षण पाकर समूहों की 50 महिलाओं को सॉफ्ट ट्यॉज और चूड़ी बनाने का काम सिखाया। जरीना ने सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने में मदद कर आर्थिक दृष्टि से कमजोर कई महिलाओं को गरीबी रेखा के दलदल से बाहर निकाल चुकी है। बकौल जरीना उसका मकसद यही है कि अभाव के जो दुर्दिन उसने देखे वो गांव में अन्य महिला या परिवार को ना देखना पड़े।
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