- Advertisement -
HomeNewsकोरोना को लेकर लोगों की नब्ज पकड़ने में मोदी नाकाम रहे! आप...

कोरोना को लेकर लोगों की नब्ज पकड़ने में मोदी नाकाम रहे! आप खुद समझिये ऐसा क्यों कहा जा रहा है.

- Advertisement -

प्रधानमंत्री के भाषण का हर पहलू भावनाएं जगा रहा था,मोदी ने जबकि 1.3 अरब लोगों के लिए या फिर ज्यादातर भारतीयों के लिए अपनी चिंता जतायी,एक वाजिब चिंता भी जग उठी.

क्या ऐसे लोगों के बारे में सोचा गया था जो लम्बे समय तक पीड़ित रहने को अभिशप्त रहने, व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था के ढह जाने या बच्चों की शिक्षा तबाह हो जाने के प्रतीक हैं? क्या राष्ट्रव्यापी लॉकडॉन की योजना बनाने और उसकी घोषणा करते समय प्रधानमंत्री के दिमाग से ये लोग निकल गये? या फिर सोच समझकर शासन ने इसका आकलन कर लिया है कि संकट से इस लड़ाई में, जो निस्संदेह आजादी के बाद की सबसे राक्षसी चुनौतियां हैं, समान रूप से सबका नुकसान होगा?

प्रधानमंत्री का राष्ट्र को संबोधन, इससे पहले या फिर बाद में भी तीनों महत्वपूर्ण अवसरों पर घबराहट दिखीं. यह दूसरा अवसर है जबकि ‘आज रात 12 बजे से’ या फिर आज आधी रात से जसे मुहावरों ने लोगों को कंपकंपा दिया है. अपने भाषण के मध्य तक वे बमुश्किल पहुंचे थे कि परिवारों ने अपने-अपने सदस्यों को जो कुछ बन पड़े समेट लेने के लिए रवाना कर दिया ताकि घर में अधिक से अधिक समय तक स्टॉक बना रहे.

लोगों की नब्ज पकड़ने में मोदी नाकाम रहे

भारत की जनता को और भी अधिक स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए था जब मोदी ने एकसमान रूप से तीन हफ्ते के लिए पूरी तरह लॉकडॉन पर जोर दिया और लोगों को आश्वस्त किया कि सभी आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति जारी रहेगी.इसका कोई मतलब नहीं होता कि लॉकडॉन के दौरान उठाए जाने वाले कदमों पर दिशा निर्देश अलग से जारी किए जाएंगे और प्रधानमंत्री अपने भाषण में बस हल्के में इसका उल्लेख भर कर दें.जब पिछले आह्वान पर जनता ने जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया दिखलायी हो तो ऐसे में एक अच्छा नेता इनकार के भाव में नहीं हो सकता. मोदी ने जनता कर्फ्यू के दौरान ‘थाली बजाओ’ के कदम पर जनता के सहयोग का किस तरह इस्तेमाल किया, जबकि भीड़ में इकट्ठा होने पर वे लोगों को डांटने पर भी विवश हुए थे.लेकिन, एक व्यक्ति के तौर पर जिसके पास जनता की नब्ज पढ़ने का दशकों का अनुभव है, मोदी ने अपने कार्यालय को यह समझने में नाकाम कर दिया कि जनता की कार्रवाई कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के तौर पर सीमित नहीं रहेगी. इसके बजाए यह मोदी में विश्वास और अंधविश्वास का प्रकटीकरण बना जाएगा.

वर्षों बाद जब भविष्य के इतिहासकार इन कठिन समय की तस्वीरों की तुलना करेंगे, तो इस बात का उल्लेख होगा कि एक नेता के संयम और निषेध के आह्वान पर बेवजह भीड़ उमड़ पड़ी और फिर उसे ही कुचल दिया गया, वास्तव में जो एक ‘इवेंट’ साबित हुआ. अब भी, मोदी ने कहा है कि जिन लोगों ने उनके आग्रह को माना और निषेध पर अमल किया, वे प्रशंसा के पात्र हैं. कम से कम उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि डॉक्टरों, नर्सों और महामारी से लड़ने वाले दूसरे लोगों लोगों का आभार जताते हुए कई लोगों ने सीमाएं लांघीं और न सिर्फ खुद के लिए, बल्कि औरों के लिए जोखिम पैदा किया.

कुछ बड़े सवालों का जवाब देना बाकी है

यह देखते हुए कि भारत जोखिम के भंवर में डुबा हुआ है पूरी तरह लॉकडॉन के फैसले को गलत नहीं ठहराया जा सकता. कोविड-19 के संक्रमण को रोकना होगा और इसमें अब तक चिकित्सीय रूप में कोई कामयाबी नहीं मिली है. ऐसे में सोशल डिस्टेन्सिंग यानी सामाजिक दूरी एक मात्र रास्ता है जिस पर चलना होगा. लेकिन इसके अलावा भी मुद्दे हैं जिन पर साथ-साथ ध्यान देना होगा.

सबसे बड़ी चिंता आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता है जिसे एक शासकीय अधिकारी के नोट में बताया गया है. इसके बाद जो बड़ी चिंता रह जाती है वह है कि कितने प्रतिशत भारतीयों के पास तीन हफ्ते तक खुद को बचाए रखने के लिए रकम जमा है (या फिर बैंक खातों में है) और इनमें से कितनों के पास अपने परिवार के लिए यह बचत है? एक बार जब यह खतरा खत्म हो जाता है तो भारतीय अर्थव्यवस्था को दोबारा शुरू करने के लिए कौन सी योजना बनायी जा रही है?बीते 10 दिनों में लगातार इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है कि ज्यादातर भारतीय श्रमिक वर्ग असंगठित क्षेत्र में हैं और एक मजदूरी छोड़कर वे दूसरी मजदूरी करते हैं. यह दौर बेशर्म कारोबारियों और साहूकारों के हाथों ऐसे लोगों के शोषण के लिए एक बार फिर तैयार है.

जब व्यक्ति तनाव में होता है तो भूख खत्म हो जाती है. अगले कुछ दिनों के भीतर अधिसंख्य भारतीयों के चेहरों पर कुछ निश्चित भाव आएंगे. कोई नहीं जानता कि उथल-पुथल कितनी दूर तक होगी और देश किस तरह के संघर्ष का इंतजार कर रहा है.दिल्ली या फिर कुछ अन्य महानगर भारत नहीं हैं जो दिन की ही तरह रात में जीते हैं. इसके अलावा क्या राज्य में उस बाध्यता को लागू करने की आवश्यकता है जिसे मोदी ने ‘कर्फ्यू जैसा’ प्रतिबंध बताया है और उनकी असफलता के बाद पुलिस को कैसे कदम उठाने के निर्देश दिए गये हैं? क्या उल्लंघन करने वालों को गिरफ्तार किया जाएगा, उन्हें तंग हाजत में डाल दिया जाएगा क्योंकि उन्होंने सोशल डिस्टेन्सिंग का मजाक उड़ाया है?

क्या COVID-19 से निपटने में सरकार सफल हो पाएगी ?

चिंता यह है कि राष्ट्र के नाम संबोधन में 21 दिनों के सम्पूर्ण लॉकडॉन के बाद संभावना यही है कि नोटबंदी की राह पर चीजें आगे बढ़ेंगी. नवंबर 2016 में पहली बार इसकी घोषणा के बाद यह बात सामने आयी थी कि पूरी प्रक्रिया और इससे उत्पन्न परिस्थितियों के बारे में पूरी तरह सोचा नहीं गया था. लगातार मकसद बदले जाते रहे.कोरोना की महामारी को झेलते हुए राष्ट्र इसे शायद ही सहन कर सके.देश को राजनीतिक नेतृत्व से अलग-अलग मोर्चों पर आश्वस्ति प्रदान करने वाले हस्तक्षेप और नेतृत्व की आवश्यकता है. 1918-19 में जब भारत में सबसे बड़ी महामारी स्पैनिश फ्लू की वजह से तकरीबन 6 प्रतिशत भारतीय आबादी खत्म हो गयी थी,लेकिन उसमें महत्वपूर्ण बात यह थी कि 94 फीसदी बच गये थे और उनमें महात्मा गांधी जैसे महानायक भी थे.

साफ बताते, सुविधा होती

लॉकडाउन जरूरी भी है तो इसका ऐलान करते समय लगता है सरकारें उन करोड़ों लोगों को भूल गईं, जो घर से न निकलें तो जिंदगी रुक जाती है. कोरोनावायरस के आर्थिक असर को लेकर भी सरकार की ढिलाई साफ नजर आ रही है.जब पीएम मोदी जनता कर्फ्यू का ऐलान कर रहे थे तब भी उन्होंने कहा कि सामान जमा करने की जरूरत नहीं है. अब लॉकडाउन है. राशन के लिए बाहर निकल भी सकते हैं तो जोखिम रहेगा क्योंकि जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं कोरोनवायरस से संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं. अगर इस कैटेगरी के लोगों को थोड़ा वक्त मिल जाता तो शायद वो इस लॉकडाउन को बेहतर प्लान कर सकते थे.सरकार ऐसे कदम उठाए जिससे अधिक से अधिक लोग जिन्दा रहें और महामारी के अंत तक बचे रहने के लिए उनमें घोड़े जैसी ताकत आ सके. इसके लिए उनका बेहतर ख्यान रखना जरूरी होगा.

22 मार्च को जब शाम के पांच बजे तो हर घर की खिड़की से, बॉलकनी से आवाज आई कि मोदी जी आप आवाज तो दीजिए हम आपके साथ हैं. लेकिन क्या सरकार इस मुश्किल घड़ी में लोगों के साथ है? जनता कर्फ्यू से पहले कहा गया कि कोरोनावायरस के कारण लॉकडाउन नहीं होगा और फिर जनता कर्फ्यू खत्म होते-होते देश के 80 से ज्यादा जिलों में लॉकडाउन हो गया. पंजाब और महाराष्ट्र में तो कर्फ्यू है.ऐसा लग रहा है कि प्लानिंग और पारदर्शिता की कमी के कारण करोड़ों की जिंदगी लॉकडाउन हो गई है.

करोड़ों लोग भगवान भरोसे

अब आते हैं दूसरी कैटेगरी के लोगों पर. शहरों की चमक-दमक में बैठे बहुत सारे लोगों को ये अंदाजा भी नहीं कि आज भी देश में ऐसे करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें रात की रोटी तब नसीब होती है जब वो दिन भर पसीना बहाते हैं. ये लोग रोज घर से निकलते हैं, काम तलाशते हैं और काम मिलता है तो खाना मिलता है.पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 के मुताबिक देश के गांवों की 25 फीसदी आबादी और शहरों की 12 फीसदी आबादी ऐसी है जिसके पास कोई स्थाई नौकरी नहीं. EUS के आंकड़ों (2011-12) के मुताबिक देश में 12 करोड़ दिहाड़ी मजदूर हैं. अक्सर ये किसी सामाजिक सुरक्षा योजना से कवर भी नहीं होते.

वर्ल्ड बैंक ग्लोबल फिंडेक्स डेटाबेस 2017 के मुताबिक भारत के 80% युवाओं के पास बैंक अकाउंट तो था लेकिन पिछले एक साल में सिर्फ 43% ने पैसे निकाले थे. आप कल्पना कीजिए ऐसा क्यों हुआ होगा. जरा सोचिए कि अगर ये लोग काम पर नहीं निकलेंगे तो इनके घर का दाना-पानी कैसे चलेगा? ये भी याद रखिए कि इस वक्त देश में 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है. एक दो सरकारों को छोड़कर किसी राज्य ने लॉकडाउन का ऐलान करते समय ये नहीं बताया कि इनके यहां चूल्हा कैसे जलेगा?

2009 में आई तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 22 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. जाहिर है ये आंकड़ा पुराना है और इसपर विवाद है. अब इसके पैमाने को भी देख लीजिए. शहरों में रोज जिनकी कमाई 32 रुपए, और गांवों में 27 रुपए से ज्यादा है, वो गरीब नहीं हैं. अब जो गरीब नहीं हैं, वो ढेर सारी सरकारी मदद वाली योजनाओं से भी बाहर हैं.18 मार्च को उपभोक्ता और खाद्य मामलों के मंत्री राम विलास पासवान ने ऐलान किया कि पीडीएस (सरकारी राशन दुकान) में लोगों को एक साथ 6 महीने की राशन उठाने की छूट दी जाएगी. लेकिन समस्या ये है कि सबसे गरीब 40% लोगों में से 40% फीसदी के पास राशन कार्ड तक नहीं. तो ऐसे दिहाड़ी मजदूर, ऐसे गरीब लोग लॉकडाउन में कैसे राशन पाएंगे? क्या सरकार ने सोचा?

आखिर जनधन के खाते कब काम आएंगे? क्यों नहीं सरकार इन खातों में कोरोना मदद के नाम पर कुछ रकम डालती? पीएम मोदी ने जनता कर्फ्यू वाली रात कोरोना इकनॉमिक टास्क फोर्स का ऐलान किया. लेकिन असल मदद कब आएगी, अभी तक तो पता नहीं.

किसानों, कारोबारी और इकनॉमी का क्या होगा?

फसलों की सही कीमत नहीं मिलने के कारण किसानों की आत्महत्या इस देश में आम बात है. जरा सोचिए अगर उनकी फसल बिके ही नहीं तो क्या होगा? गेहूं और दलहन की फसल तैयार है. लेकिन सरकारी मंडियां बंद होंगी तो किसान की फसल कौन खरीदेगा. सरकार द्वार तय सही कीमत कौन देगा? तो क्या सरकार ने इनके बारे में सोचा?पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम का सुझाव है – पीएम किसान योजना में सब्सिडी को डबल कीजिए, टैक्स की पेमेंट में मोहलत दीजिए. जीएसटी जैसे टैक्स घटाइए. गरीबी को डीबीटी से हर महीने कुछ आर्थिक मदद दीजिए. जो भी परिवार मुफ्त अनाज लेना चाहे, उसे दस किलो चावल या गेंहूं मुफ्त दीजिए. जो कंपनियां छंटनी नहीं करतीं या पगार नहीं घटाती उनकी मदद कीजिए.

लॉकडाउन के कारण फैक्ट्रियां बंद हो रही हैं. मारुति, होंडा ने काम कम करने का ऐलान किया है. डिमांड अचानक घट जाएगी. कंपनियों को होने वाले नुकसान की भरपाई कौन करेगा?  उन्हें राहत देने के लिए आखिर सरकार कब कदम उठाएगी? मंदी से चरमराई हमारी अर्थव्यवस्था अपूर्व संकट के मुहाने पर खड़ी है. इसके लिए क्या एक्शन प्लान है? उम्मीद थी कि वित्त मंत्री 23 मार्च को लोकसभा में किसी राहत पैकेज का ऐलान करेंगी लेकिन ऐसा हुए बिना ही कार्यवाही स्थगित हो गई. यानी फिलहाल राहत की उम्मीद, उम्मीद ही है.इकनॉमी में किस कदर डर है इसका अंदाजा आप 23 मार्च को शेयर बाजार की तेज गिरावट से लगा ही सकते हैं. सेंसेक्स करीब 4000 प्वाइंट गिरा. एक ही दिन में निवेशकों को करीब 14 लाख करोड़ डूब गए.

ऐसा लॉकडाउन कितना कारगर?

देश में 600 से ज्यादा जिले हैं. लॉकडाउन है 100 से कम जिलों में. तो बाकी जिलों का क्या? मुंबई का उदाहरण लीजिए. जब वहां लॉकडाउन की सुगबुगाहट हुई तो बड़ी तादाद में लोग अपने गांव लौटने लगे. कौन कहां गया पता नहीं. किसी की जांच नहीं हुई. ठीक वैसे ही जैसे चीन के वूहान से शुरुआती दिनों में करीब 50 लाख लोग दूसरे शहरों में गए और फिर वहां से लोग पूरी दुनिया में. मुंबई में इस भगदड़ के बाद अब कर्फ्यू लगाया गया है. तो लॉकडाउन की मौजूदा रणनीति कितनी कारगर होगी, शक है. आखिर क्यों बिहार से अचानक एक व्यक्ति की मौत हो गई, जबकि वहां संक्रमण की खबर भी नहीं थी. एक्सपर्ट कह भी रहे हैं कि आंशिक लॉकडाउन से काम नहीं चलेगा. WHO का तो कहना है कि सिर्फ लॉकडाउन से काम नहीं चलेगा.हमें असल में उन पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जो बीमार हैं, जिनके पास वायरस है, और उन्हें अलग-थलग करना होगा. इस वक्त जरूरत है कि जो लोग बीमार हैं और इससे पीड़ित हैं उन्हें ढूंढा जाए और निगरानी में रखा जाए. तभी इसको रोका जा सकता है.

माइक रयान के मुताबिक लॉकडाउन के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि जब ये खत्म होगा तो लोग अचानक बड़ी संख्या में बाहर निकलेंगे और फिर खतरा बढ़ जाएगा. तो बेहतर होता कि सरकार टुकड़ों में लॉकडाउन के बजाय पूरे देश में करती. लोगों को समय रहते लॉकडाउन के बारे में खुलकर बताती. जिन्हें जरूरत है, उनके लिए राहतों का ऐलान करती और स्वास्थ्य का पूरा अमला चुस्त और दुरुस्त करती. जनता कर्फ्यू के दिन दिखा कि जनता सहयोग करने को तैयार है, क्या सरकार तैयार है?

Thought of Nation राष्ट्र के विचार
The post कोरोना को लेकर लोगों की नब्ज पकड़ने में मोदी नाकाम रहे! आप खुद समझिये ऐसा क्यों कहा जा रहा है. appeared first on Thought of Nation.

- Advertisement -
- Advertisement -
Stay Connected
16,985FansLike
2,458FollowersFollow
61,453SubscribersSubscribe
Must Read
- Advertisement -
Related News
- Advertisement -