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बच्चों को नहीं परोसा जा रहा मध्यान्ह भोजन

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सीकर. कोरोना के चलते 18 माह बाद खुले प्राथमिक स्कूलों में नन्हे-मुन्नों को मिड-डे-मील नहीं परोसा जा रहा है। कोरोनाकाल में बच्चों को पैक्ड सूखा पोषाहार घरों तक पहुंचाने के निर्देशों के बाद अब जब स्कूल खोल दिए गए हैं तो बच्चों को पोषाहार के लिए दोपहर तक घर पहुंचने का इंतजार करना पड़ रहा है। ऐसे में स्कूली छोटे बच्चों के लिए भूख के साथ पढ़ाई करना बड़ा मुश्किल हो रहा हैं। जिससे स्कूलों के नामांकन पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है।दरअसल स्कूलों में पढऩे वाले गांव ढ़ाणियों के अधिकांश विद्यार्थी गरीब और मजदूर परिवारों से हैं। वर्तमान में स्कूलों का समय सुबह साढ़े सात से दोपहर एक बजे तक का हैं। इन गरीब व मजदूर परिवारों के लिए सुबह इतनी जल्दी खाना बनाकर बच्चों के लिए टिफिन तैयार करना आसान नहीं हैं। इन्हीं परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए सरकार ने मिड डे मिल जैसी व्यवस्था शुरू की थी। मिड डे मिल में बच्चों को गर्म खाने के साथ-साथ पौष्टिक आहार के रूप में पहले सुबह दूध व फल दिए जाते थे। लेकिन अब पौष्टिक आहार तो दूर बच्चों को दोपहर में मिड डे मिल का गर्म खाना तक नसीब नहीं हो रहा हैं। अप्रेल के बाद नहीं पहुंचा पोषाहारजिले के 1998 प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्कूलों में 1 लाख 52 हजार 410 विद्यार्थियों को मिड डे मिल बांटा जाता हैं। कोरोना संक्रमण के चलते पिछले साल मार्च से स्कूल बंद होने के साथ ही मिड डे मिल में गर्म खाने की व्यवस्था बंद हो गई थी। उसके बाद विद्यार्थियों के घर तक पोषाहार के पैकेट वितरण करने की व्यवस्था शुरू की गई। लेकिन यह व्यवस्था भी अप्रैल के बाद चौपट हो चुकी है। अप्रैल के बाद किसी भी विद्यार्थी के घर पर पैकेट नहीं पहुंचा।खाने के बिना बच्चों की इम्यूनिटी होगी कमजोरकोरोना संक्रमण की तीसरी लहन से बचाने के लिए सरकार बच्चों पर विशेष ध्यान दे रही हैं। शिक्षकों के वैक्सीनेशन से लेकर स्कूलों में फोगिंग, मास्क व सेनेटाइजर जैसी व्यवस्थाओं पर जोर दिया जा रहा हैं। लेकिन इन सब से ज्यादा जरूरी बच्चों के इम्यूनिटी पावर को मजबूत करना हैं। दोपहर एक बजे तक विद्यार्थियों को खाने से वंचित रखना उनकी सेहत से खिलवाड़ करना हैं। सेहत से कमजोर विद्यार्थी का ना तो मानसिक विकास होगा और ना ही पढ़ाई में ध्यान लगा सकते हैं।बच्चों की इम्यूनिटी कमजोर होने से कोरोना संक्रमण फैलने का खतरा भी अधिक हैं। साथ ही मजदूर माता-पिता को पूरे दिन अपने भूखे बच्चे की चिंता सताती रहेगी। आधे बच्चे जब इंटरवेल में टिफि न खोलकर भोजन करने बैठते हैं, तो वे लाचार बच्चे उनकी ओर झांकते रहते हैं, ऐसे हालात में भी जिम्मेदारों की आंखें नहीं खुल रही हैं।

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