दौसा. जिला मुख्यालय से दक्षिण-पूर्व दिशा में मात्र 10 किलोमीटर दूर छोटा सा कस्बा है आलूदा। 1947 में आजादी के बाद दिल्ली के लालकिले ( For the first time after Independence, the Tricolor made in Dausa was waved on the Red Fort)पर जो पहला तिरंगा लहराया था वह इसी छोटे से कस्बे आलूदा के बुनकरों के हाथों से बुने कपड़े का तैयार किया गया था। यहां के बुनकरों की मानें तो उस वक्त देश भर की खादी संस्थाओं ने अपने बुने कपड़ा तिरंगा बनाने के लिए भेजा था, लेकिन जिस कपड़े का चयन हुआ था, वह आलूदा के चौथमल, नांगलराम व भौंरीलाल महावर द्वारा तैयार कपड़ा था।
इतना गौरव हासिल करने के बाद भी ना तो दौसा समिति और ना ही सरकार ने आलूदा के बुनकरों को प्रोत्साहन दिया। आज आलूदा में बुनकर तो हैं, लेकिन अधिकांश ने अपना काम बदल लिया। अब यहां पर इक्के- दुक्के परिवार ही कपड़े बुनाई के काम से जुड़े हैं। उल्लेखनीय है कि जिले की खादी का अभी भी देशभर में नाम है। यहां की खादी से बुने कपड़े की बैडशीट रेलवे को सप्लाई हो रही है।
प्रोत्साहन मिलता तो नहीं बदलना पड़ता काम आलूदा में मशीन से खादी बुन रहे मांगीलाल महावर ने बताया कि उनके पूर्वज काफी समय से खादी बुनने का ही काम करते आ रहे हैं। जिनके बुने कपड़े ने तिरंगे के रूप में लालकिले की शोभा बढ़ाई थी। उनके पुत्रों ने यह काम छोड़ दूसरा शुरू कर दिया है। यदि खादी समिति या फिर सरकार मदद करती तो वे खादी बुनने के काम को छोड़ते नहीं।
बनेठा में तो अब भी तैयार हो रहा तिरंगे का कपड़ाआलूदा के अधिकांश बुनकरों ने तो खादी का कपड़ा बुनना फिर भी छोड़ दिया, लेकिन आलूदा के उत्तर दिशा में एक छोटा सा गांव बनेठा है। यहां के बुनकर अभी भी बड़े स्तर पर कपड़ा बुन रहे हैं। यदि बात देशभर की करें तो कर्नाटक के हुबली एवं महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में भी कुछ बुनकर झण्डा क्लॉथ तैयार कर रहे हैं।
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