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जैण्डर संवेदनशीलता: वर्तमान परिपे्रक्ष्य: मुकेश निठारवाल

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देश का गौरव बढ़ाने वाली हिन्दुस्तान की बेटियों पर हर भारतीयों को गर्व होना चाहिए, जैसे खेल, राजनीति,सामाजिक जागरूकता, प्रशासनिक आदि क्षेत्रों में वे अपने दम व बुद्धि कौशल द्धारा अपना परचम लहरा रही है। परिवार समाज की प्रथम इकाई है और परिवार में जब लड़के व लड़कीयों में विभेद ना कर समानता की बात करें तो धीरे-धीरे समाज में लैंगिक भेद को दूर किया जा सकता है। लैंगिक सवेंदनशीलता केे प्रति तब तक हम जागरूक नहीें हो सकते जब तक की लैंगिक व जैण्डर विभेद को नहीं समझें।
Sex ओर Genger क्या है ?
इसको समझाने के लिए मैं आपको पहले येे स्पष्ट करना चाहता हूं कि लड़का क्या है और लड़की क्या है ? हम परिवार में लड़को से अलग कार्य व लड़कियों से अलग कार्य करवाते हैं और यह तय कर देते हैं कि लड़के केवल कठोर व मेहनती कार्य जैसे खेती, भारी बोझ ढोना, पेड़ों पर चढऩा आदि और लड़कियां केवल घरेलु या हल्के कार्य जैसेे झाडू लगाना, चाय बनाना आदि ही कर सकती है। लेकिन यह पुराने समय से चली आ रही सामाजिक कार्यों के आधार पर लड़का व लड़की की अवधारणा अब उन परिवारों में बदल गई है जहां केवल या तो लड़का ही है या केवल लड़की ही है, तो क्या अब वहा लड़कों के भारी कार्य लड़कियां नहीं करती ओर क्या लड़कियों के हल्के कार्य लड़के नही करते? अत: केवल कार्यो के आधार पर हम Sex (लड़का/लड़की) को तय नही कर सकते। इसी प्रकार यदि माला या आभुषण पहनना, लम्बे बाल रखना, पेंट व नेकर न पहनना आदि लड़कियों की विशेषता है, लेकिन वर्तमान में कानों में मुरकियां पहनना, लम्बे बाल रखना आदि तो लड़के भी करते है, तो ये भेद कहां रहा!हम केवल सामाजिक आधार पर Sex को तय नहीं कर सकते। अत: प्राकृतिक अर्थात शारीरिक बनावट के भेद को Sex कहते है और इस शारीरिक बनावट के भेद के अलावा जो कपड़े, व्यवहार, शिक्षा, कार्यों आदि के आधार पर लड़के-लड़की में भेद बना दिए जाते हैं वे भेद सामाजिक हैं,प्राकृतिक नहीं। अत: इसे जैण्डर ( Gender ) कहते हैं। प्राकृतिक अर्थात शारीरिक रूप से लड़का हर जगह लड़का होता है ओर लड़की हर जगह लड़की होती है,जबकि सामाजिक भेद हर परिवार व हर समाज में एक जैसे नही होते अर्थात जैण्डर की इस सामाजिक मानसिकता को बदलना होगा औेर इसके प्रति संवेदनशील होना, लड़केे व लड़की में भेद नही करना ही जैण्डर संवेदनशीलता होती है। इसको दुर करने के लिए घर, स्कूल,समाज में हर जगह हमें लड़के व लड़कीयोंं के कार्यो में भेद न करें और उन्हें बराबर सम्मान देेना होगा।
ज्यादात्तर देशों में सामाजिक भेद पितृसत्तात्मक है यानि वह पुरूष की सत्ता दर्शाता है औेर पुरूषों को अहमियता देता है यह सामाजिक भेद लड़कीयों/औरतों के खिलाफ है। इससे उन पर बंधन होते हैं। कन्या भू्रण हत्या व हिंसा बढ़ती है। वर्तमान समाज में शिक्षा के कारण जागृति आई है और जब हमारे घर बेटियां जन्म लेती है तो हमें गर्व होता है। यदि उचित अवसर व सही शिक्षा मिले तो हमारी बेटियां भी बेटों से कम नहीं। येे अपने परिवार, समाज व देश का नाम रोशन कर रहीे है। यह हमारी सोच पर निर्भर करता है हम चाहे जैसा समाज बना सकते हैं। जिसमें कार्य, गुण, जिम्मेदारियों, ,व्यवहार और हुनर किसी ***** ,जाति, रंग ओर वर्ग के आधार पर थोपे न जाये । लड़के व लड़कियां अपनी मर्जी ओर स्वभाव के मुताबित काम कर सके, हुनर सीख सके और व्यवहार कर सके। लम्बें समय से चले आ रहे रिवाजों, परम्मपराओं या सामाजिक मान्यताओं का वर्तमान परिपेक्ष्य में सुधार जरूरी है। जिससे जैण्डर गेप को कम किया जा सके। सामाजिक संगठनों, स्कूलों ओर कार्यालयों में इस विषय पर चर्चा व कार्यशालाएंं हो तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी जैण्डर संवेदनशीलता विषय पर पर्याप्त लेखन हो। जिससे हम जल्दी ही सामाजिक मानसिकता को बदल सकते हैं और जब परिवार में लड़की पैदा हो तो खुशियों के साथ बेटी का स्वागत करें । बेटी बचाओ -बेटी पढ़ाओ के नारे को आत्मसात करते हुए बेटी के जन्म पर गर्व महसूस करें। सरकार द्धारा भी जैण्डर विभेद या लैंगिक अपराधों को रोकने के लिए – लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम-2012 (POCSO) बनाया गया है। जिसमें 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को लैंगिक अपराधोंं से संरक्षण का प्रावधान है।
लेखक-राउमावि भारणी में व्याख्याता हैं।

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