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चिराग पासवान बीजेपी के लिए मजबूरी, हटाया तो भारी कीमत चुकाने का डर

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चिराग पासवान जेपी नड्डा से मिले. चिराग पासवान अमित शाह से मिलने उनके घर पहुंचे. ये सब ताजा खबरें हैं. हो सकता है इस खबर को पढ़ते-पढ़ते मुलाकातों की फेहरिस्त लंबी हो गई हो.
अब दो हफ्ते पहले की हेडलाइन्स. चिराग पासवान ने नीतीश कुमार पर फिर हमला बोला. दलितों की हत्या होने पर नौकरी के ऑफर को खतरनाक बताया. तीन डिसमिल जमीन देने का वादा याद दिलाया. इसके बाद नीतीश का जवाब – वो पहले से बीजेपी के साथ हैं. फैसला बीजेपी को करना है. हमारे साथ मांझी आए हैं. हम उनका देखेंगे.
गठबंधन में घटक दल तो होते हैं पर घटक दलों के घटक दल हों, ऐसा पहली बार बिहार में देखा जा रहा है. बिहार राजनीतिक प्रयोगों की धरती रही है. हो सकता है इसे व्यापकता मिल जाए. इसिलए भी कि इस नए प्रयोग में जातीय गठजोड़ को नए सिरे से साधने की कोशिश की गई है. बिहार के चुनाव में जाति की भूमिका पर इतने रिसर्च हो चुके कि शायद यही जाति आधारित वोटिंग जारी रहने का आधार न बन जाए.
मंडल के बाद लालू की सामाजिक चेतना से जो नया निर्णायक जातीय गोलबंदी बनी थी उसे नीतीश कुमार ने इंद्रधुनषि गठबंधन से 2010 में बेमानी कर दिया था. पिछले चुनाव में लालू का साथ लेकर नीतीश ने नैया पार कर ली. इस बीच जीतन राम मांझी चले गए. अब आ गए हैं. पर फिर भी नीतीश को लगा कि बीजेपी के सवर्ण-ओबीसी वोट पर आश्रित रहने के साथ जेडीयू के वोट बैंक को और मजबूत किया जाए.
नीतीश कुमार महादलित आयोग और पासवान जाति को उसमें शामिल करने का दांव पहले ही चल चुके हैं. हाल में इसे और मजबूती मिली है. उन्होंने दलितों की हत्या होने पर घर वालों में एक को नौकरी देने और अब दलित फेस अशोक चौधरी को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर नया पासा फेंक दिया है. दरअसल दलित कार्ड की मजबूरी के पीछे अनिष्ट की आशंका है.
जब पहले फेज के चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने की प्रक्रिया शुरू हो गई हो, ऐसे नाजुक वक्त में कोई भी दल या गठबंधन फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है. सबको दलितविरोधी करार दिए जाने का डर जो सता रहा है. इस लिहाज से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बाकी दलों की तुलना में कहीं ज्यादा संवेदनशील है. क्योंकि पिछले पांच साल का इतिहास उसे डराता है. हाथरस की ताजा घटना से वो डर वापस लौट गया है.
2015 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सर संघचालक मोहन भागवत ने बयान दिया था कि सामाजिक पिछड़ेपन के नाम पर आरक्षण को स्थायी नहीं बनाया जाना चाहिए और इसकी समीक्षा के लिए गैर राजनीतिक कमेटी का गठन करना चाहिए. राजनीतिक गोटियां चलने में माहिर लालू प्रसाद यादव ने इसे ऐसा मुद्दा बना दिया कि बीजेपी का पूरा चुनाव प्रचार भागवत के बयान का खंडन करते-करते बीत गया.
लालू-नीतीश की जोड़ी ने बीजेपी-रालोसपा-मांझी-लोजपा गठबंधन का सूपड़ा साफ कर दिया. बीजेपी को पता है कि एक गलती की कितनी कीमत चुकानी पड़ी. मांझी, राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के साथ रहते हुए भी दलित और ओबीसी का तबका दूसरे पाले में खिसक गया. मांझी, पासवान और कुशवाहा वोट ट्रांसफर कराने में नाकाम रहे. इसके अगले ही साल हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने पूरे देश में बावेला मचा दिया.
बीजेपी को दलितविरोधी पार्टी बताया जाने लगा. इसकी भरपाई करने में बीजेपी को खासी मशक्कत करनी पड़ी. 2017 के यूपी चुनाव में बीजेपी ने जबर्दस्त प्रदर्शन करते हुए सत्ता हथिया ली. पर , 2018 में दलित एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने में हुई देरी से एक बार फिर विपक्ष ने बीजेपी को दलित विरोधी बताना शुरू कर दिया. बीजेपी ने अध्यादेश लाकर डैमेज कंट्रोल किया.
अब बीजेपी बिहार चुनाव से ठीक पहले चिराग पासवान से पिंड नहीं छुड़ा सकती. नीतीश ने अपने इस कांटे को बखूबी बीजेपी के पाले में डाल दिया है. अगर बीजेपी चिराग से पीछा छुड़ाती है तो दलितविरोधी करार दिए जाने का खतरा है क्योंकि यहां नीतीश अपने ही पुराने इंद्रधनुषि (rainbow coalition) पर काम नहीं कर रहे. वो मांझी को बीजेपी का साथी बताने के बदले अपना साथी बता रहे. ये एक नाटकीय स्थिति है.
उधर लालू खेमे ने भी दलित कार्ड खेला है. श्याम रजक पार्टी में वापस आ गए हैं. कुशवाहा के सिपहसालार भूदेव चौधरी ने आरजेडी जॉइन की है. खुद कुशवाहा मायावती के साथ मिल कर गैर यादव ओबीसी+दलित कार्ड खेल रहे हैं. आरजेडी तो रणनीतिक तौर पर बीजेपी के परंपरागत सवर्ण वोट में सेंध लगाने के लिए राजपूत बिरादरी को तवज्जो दे रही है.
ऐसे में चिराग पासवान बीजेपी के खाते में दलित कार्ड का इक्का हैं. पार्टी जानती है कि 2015 में 42 सीटें देने के बावजूद लोजपा सिर्फ दो पर जीत हासिल कर सकी, लेकिन इस बोझ को हटाने की कीमत चुकाने का डर ज्यादा सता रहा है.
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