बीजेपी को इसके जन्म बल्कि इसके पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ के समय से ही व्यापारी समर्थक पार्टी माना जाता है. आज की किसान समस्या के लिए जो लोग सिर्फ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज़िम्मेदार मान रहे हैं वो ये भूल गए हैं मोदी सिर्फ़ अपनी पार्टी की पुरानी नीतियों को लागू कर रहे हैं. बीजेपी के लिए व्यापारी अब भी राजनीति के केंद्र में हैं.
मोदी ने सामंती विचारधारा से धंधा करने वाले कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों को अपने साथ ज़रूर जोड़ा है, जो अब व्यापार में भी अपना वर्चस्व चाहते हैं. सोशल मीडिया पर बीजेपी समर्थकों द्वारा फैलाई जा रही अफ़वाहों को सही मानें तो व्यापारियों और उद्योगपति से एकाधिकारी व्यापारी बनाने की तरफ़ बढ़ रहे इसी छोटे समूह का टकराव किसान संकट की जड़ में नज़र आएगा.
बीजेपी के समर्थक दावा कर रहे हैं कि किसान आंदोलन पंजाब-हरियाणा और कुछ अन्य राज्यों के आढ़तिये यानि अनाज व्यापारी चला रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि बड़े-बड़े मॉल और ऑनलाइन बिक्री का नया हथियार लेकर बाज़ार में उतरे नए युग के व्यापारी बिचौलियों का धंधा ख़त्म कर देंगे. एक समय पर लोकसभा में महज दो सीटों से बीजेपी को तीन सौ के पार पहुँचाने में किसानों और मज़दूरों की बड़ी भूमिका रही है फिर भी बीजेपी किसान और मज़दूर के हितों के बारे में गंभीर नहीं दिखाई दे रही है. इसका एक कारण तो ये है कि ये सब तो राम जन्मभूमि आंदोलन और मुसलमान विरोधी भावनात्मक मुद्दे के ज़रिए बीजेपी से जुड़े हैं और ये मुद्दे अभी भी कामयाब हैं.
किसान विरोधी क्यों है बीजेपी
सच ये है कि सरकार एमएसपी की गारंटी दे ही नहीं सकती. देश में क़रीब 93/94% अनाज और दूसरे कृषि उत्पाद एमएसपी से कम क़ीमत पर बिकते हैं. एमएसपी अनिवार्य करने पर व्यापारी ख़रीद बंद कर देंगे. नतीजतन सरकार को ख़ुद ख़रीद करनी पड़ेगी. अनुमान है कि इस पर 17 लाख करोड़ रुपये का ख़र्च आएगा. सरकार अभी 22 चीज़ों के लिए एमएसपी तय करती है और क़रीब 6% की ख़रीद करती है. सरकार को क़रीब एक लाख करोड़ खाद और एक लाख करोड़ खाद्य सब्सिडी पर भी ख़र्च करना पड़ता है. केंद्र सरकार की अभी जो आर्थिक स्थिति है उसमें ये संभव दिखाई नहीं देता. नए कृषि क़ानूनों से किसान ही नहीं उपभोक्ता भी संकट में आएँगे.
नए बदलावों की गहराई से छानबीन करने पर पता चलता है कि सरकार ने बड़े व्यापारियों को मनमानी क़ीमत वसूलने की छूट दे दी है. उनपर न तो किसान को ख़ास क़ीमत देने की बंदिश होगी और न बाज़ार में बेचते समय कोई रोक-टोक होगी. किसी भी क़ानून में किसान को सरकार द्वारा तय एमएसपी यानि न्यूनतम क़ीमत देना अनिवार्य नहीं बनाया गया है. अमेरिका जैसे विकसित देश में भी किसान से ख़रीद की क़ीमत पर तीन सौ प्रतिशत से ज़्यादा क़ीमत पर खेती उत्पाद बेचने पर रोक है. इसमें ज़रूरत के मुताबिक़ सामान की साफ़ सफ़ाई, पैकेजिंग, ट्रक या ट्रेन से ढुलाई और मुनाफ़ा सब कुछ शामिल है. ख़रीद की क़ीमत पर तीन सौ प्रतिशत तक ज़्यादा क़ीमत को लगभग पूरी दुनिया में उचित माना जाता है.
सवालों का जवाब नहीं
भारत के नए क़ानूनों में उपभोक्ता के हितों की रक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है. उदाहरण के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में नए सुधारों को लिया जा सकता है. इस क़ानून में ये व्यवस्था की गई है कि फल-फूल यानि बाग़वानी से होने वाले उत्पादन में अगर सौ प्रतिशत वृद्धि हो जाये तो सरकार मूल्य नियंत्रण के लिए क़दम उठा सकती है. इसी तरह सब्ज़ियों की क़ीमत पचास प्रतिशत बढ़ जाये तो सरकार क़ीमत नियंत्रण के लिए क़दम उठाएगी.
लेकिन गेहूँ, चावल जैसे अनाज, तेल और दाल की क़ीमत बढ़ने पर सरकार कब क़दम उठाएगी इसके बारे में कोई साफ़ बात नहीं की गई है. सिर्फ़ इतना ज़िक्र है कि बेतहाशा क़ीमत बढ़ने पर कार्रवाई की जाएगी. क़ीमत वृद्धि को बेतहाशा कब माना जाएगा इसे स्पष्ट नहीं किया गया है. जानकारों का मानना है कि क़ीमत वृद्धि को एमएसपी के आधार पर तय किया जाना चाहिए. इसका मतलब ये है कि एमएसपी से तीन या चार गुणा से ज़्यादा क़ीमत बढ़ने पर सरकार को कार्रवाई क़रनी चाहिए. क़ानून में इसका साफ़ तौर पर उल्लेख होना चाहिए.
व्यापारी पर कार्रवाई करेगी सरकार?
मंडी क़ानून में संशोधन करके सरकार ने किसान को कहीं भी सामान बेचने की छूट दी है. वास्तविकता ये है कि सिर्फ़ छह प्रतिशत अनाज ही मंडियों में बिकता है. पंजाब और हरियाणा के किसान मंडियों का ज़्यादा फ़ायदा उठाते हैं. इसलिए इन राज्यों में किसान आंदोलन सबसे ज़्यादा प्रभावी है. इस क़ानून में बदलाव करते समय सरकार ने ये ध्यान में नहीं रखा है कि मंडी के बाहर एमएसपी को लागू कैसे किया जाएगा. सबसे बड़ा डर ये है कि व्यापारी किसान को कम क़ीमत देंगे और उपभोक्ता को महँगा बेचेंगे.
जानकारों का मानना है कि सरकार को एमएसपी को क़ानूनी सुरक्षा देनी चाहिए. एमएसपी नहीं देने पर व्यापारी को जुर्माना और सज़ा होनी चाहिए. इसी तरह निश्चित क़ीमत से ज़्यादा पर बेचने पर भी क़ानूनी कार्रवाई की व्यवस्था होनी चाहिए. कांट्रैक्ट खेती का क़ानून बिल्कुल नया है. इसमें कंपनियों और व्यक्तियों को किसान से किराए पर ज़मीन लेकर खेती की छूट तो दी गयी है लेकिन किसान के हित की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है. किसान को अदालत जाने का अधिकार भी नहीं है. कम्पनी अगर वादे के मुताबिक़ भुगतान नहीं करती या कोई और विवाद होता है तो उन्हें सरकारी अधिकारियों के पास जाना होगा.
पूरी प्रक्रिया में तीन से चार महीने लग सकते हैं और इस बीच किसान का पैसा फंसा रहेगा. उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को लंबे समय तक पैसा नहीं मिलता. क़ानून के मुताबिक़ किसानों को 15 दिनों में भुगतान किया जाना चाहिए और भुगतान नहीं होने पर ब्याज दिया जाना चाहिए. उत्तर प्रदेश सरकार इसे कभी लागू नहीं करा पायी. कुछ साल पहले चिप्स बनाने वाली एक कम्पनी ने किसानों से आलू बोने का कांट्रैक्ट किया. बाद में ये कह कर आलू ख़रीदने से इनकार कर दिया कि आलू उनकी ज़रूरत के हिसाब से तैयार नहीं हुआ. नए क़ानून में इस तरह के विवाद से किसान को बचाने की कोई व्यवस्था नहीं है.
बड़ी कम्पनियों से क़ानूनी लड़ाई लड़ना किसानों के बस में नहीं है इसलिए सभी विवादों के निपटारे के लिए ट्रिब्यूनल जैसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें किसान, उपभोक्ता फ़ोरम, सरकार, व्यापारी और जज हों और एक महीने के अंदर फ़ैसला देने की व्यवस्था हो. किसान से ख़रीद के लिए एमएसपी देना क़ानूनी तौर पर अनिवार्य किया जाना चाहिए. उपभोक्ता के हित की रक्षा के लिए अधिकतम मूल्य का फ़ॉर्मूला तय होना चाहिए. किसान को निश्चित समय पर भुगतान नहीं होने पर ब्याज और व्यापारी के लिए सज़ा की व्यवस्था होनी चाहिए. भारत में सामान की कमी होने पर छुपा कर रखने और महँगी क़ीमत पर बेचने की ज़बरदस्त प्रवृति है. इस पर क़ानूनी रोक के बिना किसान और उपभोक्ता दोनों के हितों की रक्षा नहीं हो सकती है.
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क्या मोदी सरकार किसानों को एमएसपी की गारंटी दे सकती है? जानिए इस सरकार की हक़ीक़त
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