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बीजेपी के हिंदू बनाम ममता के बांग्ला राष्ट्रवाद में जंग

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पश्चिम बंगाल देश के उन चुनिंदा राज्यों में शुमार है, जहां बंगाली अस्मिता, संस्कृति, परंपराओं और नायकों का पुरजोर समर्थन और सम्मान किया जाता रहा है. यहां सियासी दल भी शुरू से ही इस मुद्दे को भुनाते रहे हैं.
बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड या हिंदू राष्ट्रवाद के मुकाबले के लिए मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) अध्यक्ष ममता बनर्जी ने इस बांग्ला राष्ट्रवाद को ही अपना हथियार बनाने का फ़ैसला किया है. लेकिन इसके साथ ही सवाल उठ रहा है कि उनका यह फ़ैसला कितना कारगर होगा.
राज्य में बीजेपी के उदय के साथ ही ममता ने बांग्ला राष्ट्रवाद का कार्ड खेलना शुरू कर दिया था. खासकर साल 2018 के पंचायत चुनावों और उसके बाद बीते लोकसभा चुनावों में भगवा पार्टी को मिली कामयाबी के बाद उन्होंने इसे तुरुप का पत्ता बना लिया है. यही वजह है कि ममता अक्सर बंगाली अस्मिता और पहचान का मुद्दा उठाती रही हैं. वैसे, यह बात बीजेपी भी अच्छी तरह समझ रही है कि बंगाल के लोगों में अपनी क्षेत्रीय अस्मिता और नायकों के प्रति गहरा भावनात्मक लगाव है.
यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह और जे.पी. नड्डा समेत तमाम बड़े बीजेपी नेता राज्य के दौरे पर अपने भाषणों में चैतन्य प्रभु, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का जिक्र करना नहीं भूलते. पश्चिम बंगाल में अपने नायकों का सम्मान करने और उन पर गर्व करने की परंपरा आजादी से भी पहले से चल रही है. बंगाल के विभाजन से पहले वह चाहे विद्रोही कवि नजरुल हों, नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर, समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर या फिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस, इन सबको जितना सम्मान मिलता रहा है, वह दूसरे राज्यों में वहां के नायकों के लिए कम ही देखने को मिलता है.
नायकों को पूजने की परंपरा
अपने नायक तलाशने और उनको सम्मानित करने की इसी परंपरा के तहत दुनिया के किसी भी देश में बसा कोई बंगाली मूल का व्यक्ति अगर अहम उपलब्धि हासिल करता है तो मीडिया से लेकर राजनीतिक दलों में उसे अपना बताते हुए हीरो बनाने की होड़ मच जाती है. यह बात दीगर है कि वह व्यक्ति कभी बंगाल नहीं आया हो या दशकों पहले विदेश में बस गया हो. उस पर अखबारों के पन्ने रंगे जाते हैं और कई दिनों तक टीवी कवरेज चलती है.
नायकों को लगभग पूजने की इस परंपरा में अमर्त्य सेन से लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी समेत कई लोगों के नाम गिनाए जा सकते हैं. इस मामले में सबसे ताजा मिसाल बांग्ला अभिनेता सौमित्र चटर्जी की है. उनके निधन पर स्थानीय अखबारों और चैनलों में जैसी व्यापक कवरेज हुई देश में उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती. आगामी विधानसभा चुनाव टीएमसी और उसे जोरदार मुक़ाबला दे रही बीजेपी- दोनों के लिए बेहद अहम है. टीएमसी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने के बावजूद अंदरुनी कलह और गुटबाजी से जूझ रही है.
ममता यह बात अच्छी तरह जानती हैं कि वे पैसों और कार्यकर्ताओं के मामले में बीजेपी का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं. इसलिए वह बांग्ला राष्ट्रवाद को ही अपना प्रमुख हथियार बनाने की रणनीति पर काम कर रही हैं. वैसे, वे पहले से ही अपने बयानों में इसका संकेत देती रही हैं. वे कई बार कह चुकी हैं कि बंगाल में बंगाली ही राज करेगा, गुजराती नहीं. अपने भाषणों में ममता बीजेपी को ‘बाहरी’ कहती रही हैं.
विद्यासागर की प्रतिमा में तोड़फोड़
बीते साल लोकसभा चुनावों के मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के रोड शो के दौरान ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़े जाने के बाद भी उन्होंने इस बांग्ला राष्ट्रवाद को खूब भुनाया था. आखिरी दौर के मतदान से पहले हुई इस घटना को बांग्ला राष्ट्रवाद से जोड़ने का ही नतीजा था कि उस दौर में बीजेपी का खाता तक नहीं खुल सका. महीने भर के भीतर ही ममता ने वहीं पर दोबारा विद्यासागर की प्रतिमा स्थापित की थी.
बंगाल में जन्मे महापुरुषों का बंगाली समाज पर गहरा असर साफ नजर आता है. मिसाल के तौर पर कोई भी कार्यक्रम कविगुरू रवींद्रनाथ के गीतों के बिना शुरू ही नहीं होता. नेताजी के मुद्दे को भी टीएमसी शुरू से ही भुनाती रही है. अब भी ज्यादातर बंगाली मानते हैं कि नेताजी की मौत विमान हादसे में नहीं हुई थी. खासकर चुनावों के मौके पर नेताजी की मौत का मुद्दा उछलने लगता है.
ममता सरकार बंगाल के प्रति केंद्र की उपेक्षा का मुद्दा बार-बार उठा कर बांग्ला राष्ट्रवाद की इसी भावना को सींचती रहती है. वैसे, मूर्ति पूजा से दूर रहने वाले वामपंथी भी अपने नायकों को महान बताते हुए बांग्ला राष्ट्रवाद की इस भावना को भुनाने में पीछे नहीं रहे हैं. इन तमाम नायकों को हमेशा सम्मान मिलता रहा है, भले ही राज्य में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार रही हो. स्कूली पाठ्यक्रमों में इनकी जीवनी भी अनिवार्य है. लेकिन ममता ने बांग्ला राष्ट्रवाद को भुनाने के मामले में वामपंथियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है.
वे सत्ता में आने के बाद से ही हमेशा बांग्ला भाषा और संस्कृति की बात कहती रही हैं. भाषा, संस्कृति और पहचान के प्रति उनका लगाव टीएमसी सरकार के मां, माटी और मानुष नारे में भी झलकता है. पहले वे पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए जिस बांग्ला राष्ट्रवाद का इस्तेमाल करती थीं, अब उसे ही बीजेपी के खिलाफ प्रमुख हथियार बना रही हैं. बीते साल एक चुनावी रैली में रवींद्रनाथ का जन्मस्थान बताने में अमित शाह की ग़लती को टीएमसी ने फौरन लपक लिया था.
तब उसने आरोप लगाया था कि बीजेपी को बंगाल के बारे में कोई जानकारी नहीं है और यह बंगालियों का अपमान है. टीएमसी ने चुनाव अभियान के दौरान एक गीत भी बजाया था जिसमें पहली बार वोट डालने वाले युवाओं से पूछा गया था कि वे बंगाल के पक्ष में वोट डालेंगे या उसके ख़िलाफ़. बीते साल ममता ने उत्तर 24-परगना जिले के बैरकपुर में अपनी एक रैली में कहा था कि बंगाल में रहना है तो बांग्ला भाषा सीखनी ही होगी. उनका कहना था कि लोग हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू भी बोल सकते हैं. लेकिन उनको बांग्ला बोलना भी सीखना होगा.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल की आबादी में 15 फीसदी गैर-बंगाली हैं. लेकिन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि अब यह आंकड़ा बीस फीसदी तक पहुंच गया है. ममता ने बीते दिनों इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में बांग्ला मीडियम को शामिल नहीं करने के लिए भी केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया था.
बीजपी की नज़र हिंदू वोटों पर
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीजेपी जहां ममता पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए राज्य के करीब साढ़े पांच करोड़ हिंदू वोटरों को अपने पाले में खींचने का प्रयास कर रही है, वहीं ममता के पास इसकी काट के लिए बांग्ला राष्ट्रवाद ही प्रमुख हथियार है. राजनीतिक पर्यवेक्षक कुशल कुमार जाना कहते हैं, इस बार विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होंगे. हालांकि इन चुनावों में कई दूसरे मुद्दे भी अहम होंगे. लेकिन असली लड़ाई बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवाद और ममता के बांग्ला राष्ट्रवाद के बीच ही है. अब यह तो समय बताएगा कि कौन-सा राष्ट्रवाद किस पर भारी पड़ता है.
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