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मणिपुर में चुनाव से पहले BJP का संकट गहराया

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मणिपुर (Manipur) भाजपा शासित उन छह राज्यों में से एक है जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. हालांकि, कई ऐसे कारण हैं जिन्होंने राज्य में पार्टी की अनिश्चित स्थिति को लेकर भाजपा आलाकमान को एकदम अलर्ट कर दिया है.
इनमें आदिवासी विधायकों की नाराजगी, राज्य मंत्रिमंडल में और ज्यादा विभाग देने की प्रमुख सहयोगी दलों की मांग और मौजूदा मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह (Biren Singh) के खिलाफ भाजपा विधायकों के बीच बढ़ता असंतोष शामिल है. भाजपा आलाकमान के निर्देश पर मणिपुर के मुख्यमंत्री, राज्य मंत्री टीएच बिस्वजीत सिंह और प्रदेश पार्टी प्रमुख ए. शारदा देवी ने पिछले हफ्ते दिल्ली का दौरा किया और राज्य की मौजूदा स्थिति के बारे में जानकारी दी.
इन नेताओं से 2022 का विधानसभा चुनाव जीतने को लेकर उनके रोडमैप के बारे में भी पूछा गया, जो अगले साल वसंत में उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के विधानसभा चुनाव के साथ प्रस्तावित हैं. अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा (JP Nadda) स्थिति का जायजा लेने के लिए 9-10 अक्टूबर को खुद ही राज्य का दौरा करने वाले हैं. इस दौरान नड्डा सत्तारूढ़ गठबंधन के सभी विधायकों से मुलाकात कर उनका मूड भांपने की कोशिश कर सकते हैं.
2017 में पार्टी की गठबंधन सरकार गठित होने के बाद बीरेन सिंह ने मणिपुर में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी. उस साल विधानसभा चुनाव में जनादेश खंडित रहा था. राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से 21 पर जीत हासिल करने वाली भाजपा ने अंततः नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी.
पिछले साल एनपीपी की तरफ से समर्थन वापस लिए जाने के कारण बीरेन सिंह को सरकार को एक बेहद अहम विश्वासमत का सामना करना पड़ा लेकिन आखिरी क्षणों में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पूर्वोत्तर में भाजपा के सबसे अहम नेता माने जाने वाले असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के हस्तक्षेप के कारण सरकार गिरने से बच गई. हालांकि, कथित तौर पर बीरेन सिंह के ‘एकतरफा’ कामकाज वाले रवैये से नाराज रही एनपीपी ने भाजपा के साथ नहीं छोड़ा. लेकिन बीरेन सिंह के खिलाफ उसका असंतोष कम होता नहीं दिख रहा है.
सितंबर में इस राज्य के लिए भाजपा के चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव ने आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारियों की स्थिति के बारे में मुख्यमंत्री और अन्य नेताओं के साथ बैठक की थी. पिछले हफ्ते अमित शाह की तरफ से मुख्यमंत्री को अचानक दिल्ली तलब किए जाने के बाद संभावित ‘नेतृत्व परिवर्तन’ की अटकलें तेज हो गई थीं. पार्टी के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि कुछ समस्याएं हैं, लेकिन उनका कहना है कि उन्हें दूर करने के प्रयास किए जा रहे हैं.
चुनाव एकदम नजदीक हैं और ऐसे में बीरेन सिंह की जगह किसी और को लाना कोई प्रभावी समाधान नहीं होगा. उन्हें सभी को साथ लेकर चलने को कहा गया है और साथ ही निर्देश दिया गया है कि समस्याओं को लटकाए रखने के बजाये उनके जल्द से जल्द समाधान पर ध्यान दें.
क्यों बढ़ रही है नाराजगी?
भौगोलिक स्थिति के लिहाज से मणिपुर पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों में बंटा हुआ है. विवाद का ताजा कारण एक आदेश में निहित है जिसे पिछले महीने विधानसभा अध्यक्ष की तरफ से जारी किया गया था. इसके तहत विधायिका में पहाड़ी क्षेत्रों में विकास संबंधी सभी गतिविधियों की योजना बनाने, उन पर अमल और निगरानी की जिम्मेदारी संभालने वाले राज्य के सर्वोच्च निकाय हिल एरिया कमेटी में नौ गैर-आदिवासी (या घाटी निवासी) सदस्यों की नियुक्ति की गई थी. समिति में पहाड़ी क्षेत्र के विधायक सदस्य होते हैं.
प्रस्ताव पेश करते समय स्पीकर की तरफ से इस कारण का हवाला दिया गया था कि घाटी के निर्वाचन क्षेत्रों के कुछ हिस्से पहाड़ी क्षेत्र भी हैं. पहाड़ी जिलों के विधायकों ने प्रस्ताव का विरोध किया. हालांकि, हंगामे के कारण स्पीकर को अपना फैसला स्थगित करना पड़ा था लेकिन बताया जा रहा है कि ऐसा प्रस्ताव लाने वाले कदम को लेकर विधायकों में नाराजगी अब भी कायम है. इससे पूर्व, मणिपुर (पहाड़ी क्षेत्र) स्वायत्त जिला परिषद विधेयक, 2021 भी नाराजगी का एक सबब बन गया था, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र समिति और जिला परिषदों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करने के उद्देश्य से लाए जाने वाला यह विधेयक अपेक्षा के अनुरूप अगस्त में मानसून सत्र के दौरान पेश नहीं किया गया था.
1971 में मणिपुर के मूलत: आदिवासी बहुल पहाड़ी जिलों में प्रशासनिक स्वायत्तता की अनुमति के लिए संविधान का अनुच्छेद 371सी पेश किया गया था. इसके जरिये ही राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों के तहत शासन की व्यवस्था को कायम किया गया था. 2021 के इस विधेयक का उद्देश्य इसमें संशोधन करना है. संशोधन विधेयक पेश करने में भाजपा सरकार की नाकामी ने मणिपुर के 10 पहाड़ी जिलों में संकट बढ़ा दिया है. इन जिलों से 18 विधायक चुने जाते हैं. इसी संदर्भ में भाजपा विधायक मुख्यमंत्री के खिलाफ शिकायत करने के लिए दिल्ली पहुंचे, और उन्हें पार्टी आलाकमान की तरफ से सौहार्दपूर्ण समाधान का आश्वासन दिया गया.
पहाड़ी परिषद ने परिषदों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करने संबंधी एक विधेयक के मसौदे को मंजूरी दी थी. हालांकि, मानसून सत्र के दौरान सरकार द्वारा इसे पेश करने में नाकाम रहने के बाद कई छात्र संगठनों ने स्थानीय विधायकों के इस्तीफे की मांग की है. अब मामला मुख्यमंत्री के पास लंबित है. यदि इसे समय पर नहीं सुलझाया गया तो विपक्षी दल आगामी चुनाव के दौरान इसे एक बड़े मुद्दे में बदलकर हमारी चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
बताया जाता है कि घाटी क्षेत्र राज्य की राजनीति पर हावी है और माना जाता है कि इसकी तरफ से बिल का विरोध किए जाने की वजह से ही मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने विधेयक की संवैधानिक वैधता का पता लगाने के लिए एक समिति बनाकर इसे कथित तौर पर ठंडे बस्ते में डाल दिया. बिल पर देरी को लेकर सबसे पहले तो छात्र संगठनों ने आंदोलन करना शुरू कर दिया, और तबसे मणिपुर में हड़ताल और अशांति लगातार बढ़ रही है. घाटी और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच खाई को पाटने के लिए बीरेन सिंह ने ‘चलो पर्वत की ओर’ नाम से एक अभियान चलाया. लेकिन आदिवासी छात्र संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया.
यही नहीं यह आरोप भी लगाया कि ये कार्यक्रम आदिवासी क्षेत्रों में जमीन हड़पने के इरादे से शुरू किया गया है. नतीजतन, मुख्यमंत्री को पिछले महीने कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा. भाजपा सरकार आगामी चुनावों में राज्य की ‘सुधरी’ कानून-व्यवस्था की स्थिति को एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में जुटी थी. लेकिन 22 सितंबर को नागा नेता अथुआन अबोनमाई का संदिग्ध उग्रवादियों द्वारा अपहरण और हत्या कर दिए जाने की घटना इसमें एक बड़ी बाधा साबित हो सकती है. अपने दिल्ली दौरे के दौरान मुख्यमंत्री ने केंद्रीय गृह मंत्री शाह से मामले की जांच एनआईए से कराने का अनुरोध किया था, लेकिन राज्य के छात्र संगठनों ने सोमवार को मणिपुर बंद का आयोजन किया, जिसे अन्य संगठनों की तरफ ने भी समर्थन मिला.
बीरेन सिंह ‘कुछ नौकरशाहों के समर्थन से अपना प्रशासन चला रहे हैं और सरकार के कामकाज में विधायकों की कोई भी भूमिका नहीं रह गई है. उनका सब चीजों पर पूरी तरह नियंत्रण रखना ही पिछले साल असंतोष भड़कने का मुख्य कारण था. अब जब चुनाव में महज चार महीने बचे हैं, इस समय पहाड़ी इलाकों में बढ़ता असंतोष हमारे लिए अच्छा संकेत नहीं है. भाजपा को केवल इस बात से ही फायदा मिल सकता है कि कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति है और उसके पास चुनाव लड़ने के लिए फंड तक नहीं है. फिर भी बड़ी संख्या में लोग मुख्यमंत्री की कार्यशैली से नाराज हैं.
इसके अलावा जो एक और मुद्दा मुश्किलें बढ़ा सकता है, वो है कुछ सहयोगी दलों की तरफ से अपने विभागों के फिर से बंटवारे की मांग करना. कुछ दल अहम मंत्रालयों की मांग कर रहे हैं. पार्टी सूत्रों ने बताया कि बीरेन सिंह के दिल्ली रवाना होने से ठीक पहले सहयोगी दल नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के विधायकों ने एक बैठक की और सरकार को अपनी मांगों के बारे में बताया.
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