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अपने ही चक्रव्यूह में फँस गयी बीजेपी?

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नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) अपने भाषणों और बयानों में अक्सर मिथकीय कथाओं और प्रसंगों का ज़िक्र करते हैं. कोरोना आपदा के समय लोगों का आह्वान करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था कि महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था, हम कोरोना से लड़ाई को 21 दिन में जीत लेंगे. हालाँकि, इसके बाद क्या हुआ सबको मालूम है.
लेकिन उसी महाभारत के कतिपय धनुर्धर इतने पारंगत थे कि वे छोड़े गए तीर को वापस अपने तरकश में ला सकते थे. नरेंद्र मोदी ने महाभारत के धनुर्धरों की तरह, मंडल पार्ट-2 के तीरों की बौछार की. लेकिन जाति जनगणना के तीर को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर लौटाना पड़ा. अब सवाल है कि यह तीर क्या मोदी के तरकश में वापस आएगा? जाहिर है कि मंडल-2 के मसीहा बनने चले नरेंद्र मोदी को अब विपक्षी दलों के राजनीतिक हमलों का सामना करना पड़ेगा.
सामाजिक न्याय की धुरी रहे बिहार और यूपी में जाति जनगणना से मोदी सरकार के मुकरने का मुद्दा बनने लगा है. बिहार की राजनीति में उफान आना स्वाभाविक है. दरअसल, जाति जनगणना की मांग को लेकर नीतीश कुमार के नेतृत्व में तेजस्वी यादव, उपेंद्र कुशवाहा सहित बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी आदि दलों के पिछड़े नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला था.
गठबंधन टूटने के बाद पहली बार नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने एक साथ आकर किसी मुद्दे को उठाया. इससे बिहार में नई राजनीतिक करवट की संभावनाओं को भी बल मिलने लगा है. वस्तुतः राजनीति संभावनाओं का खेल है. क्या इससे बिहार में सत्ता समीकरण बदल सकते हैं? नरेंद्र मोदी सरकार के जाति जनगणना से मुकरने के बाद एक बार फिर बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले पिछड़े नेताओं की गोलबंदी शुरू हो गई है.
सीधे तौर पर इस गोलबंदी से नरेंद्र मोदी को चुनौती मिलेगी. दरअसल, मोदी अपने को पिछड़ा कहते हैं, लेकिन वह हिंदुत्व के रथ पर सवार हैं. मोदी ने अपनी पिछड़ी जाति की पहचान केवल वोट जुगाड़ने के लिए किया है. सामाजिक न्याय की पिछड़ी ताक़तों के मुक़ाबले मोदी के पिछड़े होने का छद्म दरक जाएगा. बहरहाल, इतिहास और मिथक के सहारे कहा जा सकता है कि पाटलिपुत्र और इंद्रप्रस्थ के बीच युद्ध का शंखनाद होने वाला है! एक तरफ़ पाटलिपुत्र है- मौर्य साम्राज्य अर्थात शूद्र साम्राज्य की राजधानी और दूसरी तरफ़ इंद्रप्रस्थ है, यानी हिंदुत्व की राजनीति का केंद्र.
एक सवाल यह भी है कि नरेंद्र मोदी सरकार के सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे का आगामी चुनावों पर क्या असर होगा? 2022 में पांच राज्यों के चुनाव हैं. इनमें यूपी का चुनाव बीजेपी और विपक्षी दलों, दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. यूपी में समाजवादी पार्टी योगी सरकार के सीधे मुक़ाबले में दिख रही है. जाहिर है, अखिलेश यादव इस दाँव को खाली नहीं जाने देंगे. उन्होंने ट्वीट करके मोदी सरकार पर पिछड़ों के साथ धोखा करने का आरोप लगाते हुए जाति जनगणना कराने की मांग दोहराई है.
अखिलेश यादव को अन्य पिछड़ों में अपना जनाधार मज़बूत करने वाला बड़ा मुद्दा मिल गया है. सपा की तरफ़ से नारा बुलंद किया जा रहा है- ‘अबकी बार, पिछड़ों की सरकार.’ अब सवाल यह है कि पिछड़े नेता के रूप में लगातार अपनी ब्रांडिंग करने वाले नरेंद्र मोदी ने जाति जनगणना कराने से क्यों इनकार कर दिया है? राजनीतिक विश्लेषकों की नज़र में मोदी सरकार ने कारपोरेट शक्तियों और आरएसएस के दबाव में यह क़दम उठाया है. यह मुद्दा जाति जनगणना तक सीमित रहने वाला नहीं है. यह मंडल का विस्तार है. जाति जनगणना के बाद निजी संस्थानों और न्यायपालिका आदि में आरक्षण की मांग होगी.
जाति जनगणना के साथ आरक्षण की सीमा बढ़ाने की माँग भी होगी. लालू प्रसाद यादव ने ट्वीट करके मांग की है कि अब समय आ गया है कि आरक्षण की 50 फ़ीसदी की सीमा बढ़ाई जाए. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लंबे समय से आबादी के हिसाब से आरक्षण की माँग करते रहे हैं. उन्होंने कांशीराम के नारे को दोहराया है- जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.
जाहिर है कि मंडल-2 की ब्रांडिंग करने की कोशिश में मोदी अपने ही जाल में फँस गए हैं. बीजेपी के सामने एक और मुश्किल है. आरएसएस ने 9 दशक में जो हिंदू एकता की राजनीतिक गोलबंदी की है, यह छद्म जाति जनगणना से टूटेगा. इसके साथ जातीय विमर्श नए सिरे से उभर सकता है. संघ जातीय भेदभाव को हमेशा झुठलाता रहा है. आरएसएस का आरोप है कि जाति जनगणना से जातीय वैमनस्यता पैदा होगी.
गोया, अभी हिंदू समाज में बड़ा सौहार्द और समता है! दरअसल समरसता के सिद्धांत से आरएसएस हिंदुओं के बीच जातिगत श्रेणीबद्धता को कायम रखते हुए अगड़ी जातियों यानी सवर्णों के वर्चस्व को कायम रखना चाहता है. दूसरा, जातिगत जनगणना से भौतिक संसाधनों के असमान वितरण की पोल खुलेगी. दरअसल, प्रथम, द्वितीय श्रेणी की नौकरियों से लेकर भू संपदा और वित्तीय संपदा पर अगड़ी जातियों का प्रभुत्व है. अब मामला केवल लोगों की गिनती का नहीं है बल्कि सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण का है.
इससे घबराई मोदी सरकार ने जाति जनगणना को तकनीकी रूप से असंभव क़रार दिया है. बीजेपी का घोषित एजेंडा हिंदुत्व है. लेकिन चुनावों में सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए बीजेपी-संघ ने बड़ी कामयाबी हासिल की है. इसलिए यह कहना कि बीजेपी जाति का कोई कार्ड नहीं खेलती, बहुत बड़ा झूठ है. यूपी में बीजेपी सपा पर यादवों को अतिरिक्त लाभ पहुंचाने और शेष पिछड़ी जातियों की हकमारी का आरोप लगाती है.
इसी तरह बसपा और मायावती पर जाटवों को प्राथमिकता देने का आरोप लगाया जाता है. संघ सीधे तौर पर प्रचारित करता है कि आरक्षण का लाभ केवल यादवों और जाटवों को मिला. इस प्रकार ग़ैर- यादव पिछड़ों और ग़ैर जाटव दलितों में इनके प्रति नफ़रत पैदा करके बीजेपी ध्रुवीकरण करती रही है. बीजेपी-संघ ने अति-पिछड़ी और अति-दलित जातियों के नेताओं का अपनी राजनीतिक ज़मीन मज़बूत करने के लिए मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया है.
इस राजनीति की वजह से इन जातियों में सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी और आर्थिक उत्थान की आकांक्षा पैदा हुई. यादवों के सशक्तीकरण और राजनीति को अपनी आर्थिक बदहाली का कारण मान बैठीं इन जातियों को जाति जनगणना से उम्मीद पैदा हुई. इन्हें लगा कि जाति जनगणना से अन्याय के आँकड़ों का खुलासा होगा. इसके बाद उन्हें अपना हक मिलेगा. दरअसल, इसकी ज़रूरत भी है कि जो समाज पीछे छूट रहा है, उसके लिए उचित प्रावधान करके उनका सशक्तीकरण किया जाए.
जाति जनगणना के आँकड़ों से ऐसे समुदायों की पहचान भी सुनिश्चित होगी और उनके लिए विशेष नीतियाँ भी बनाई जा सकती हैं. राजनीति में अति पिछड़ी जातियों का इस्तेमाल करने वाली बीजेपी सरकार जाति जनगणना से भाग रही है. इन जातियों का वोट हासिल करके ही केंद्र और राज्य में इतना बड़ा बहुमत मिला है. यूपी में इनकी तादाद 30 से 35 फ़ीसदी मानी जाती है.
जाति जनगणना से इनकार के बाद सबसे ज़्यादा धक्का इस जाति समूह को ही पहुँचेगा. बीजेपी के साथ मज़बूती से जुड़ा रहा यह समाज धोखेबाज़ी के लिए क्या बीजेपी को माफ़ करेगा? जाहिर है, आर्थिक तरक्की और सामाजिक प्रतिष्ठा की उम्मीद लगाए इस समाज की नाराज़गी से यूपी चुनाव में बीजेपी को नुक़सान होना तय है.
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