BSP सुप्रीमो मायावती (Mayawati) अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को देखते हुए खुले तौर पर ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश कर रही हैं. उनके द्वारा इस तरह के प्रयास इसलिए किए जा रहे हैं ताकि उनका अतीत एक बार भी वापस आ जाए.
मायावती उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2007 के माहौल को फिर से बनाने की कोशिश कर रही हैं. उस चुनाव से पहले उनके द्वारा पूरे उत्तरप्रदेश में ब्राह्मण भाईचारे (बिरादरी) की बैठकों का दौर चलाया गया था, जहां सबने वर्ण व्यवस्था के शीर्ष और निचले क्रम का अप्रत्याशित गंठबंधन देखा. यही उनकी शानदार जीत का आधार बना था.
बहनजी के सबसे करीबी सहयोगियों में सतीश चंद्र मिश्रा सबसे ऊपर हैं. जो ब्राह्मण हैं, डेढ़ दशक पहले जो ब्राह्मण बैठकों का दौर मायावती ने चलाया था उसे मुख्य वास्तुकार यही थे. अब एक बार फिर वे बहनजी के मुख्य रणनीतिकार हैं. पिछले एक दशक से जिस बहुजन समाज पार्टी के राजनितिक सितारे बुलंदियों से नीचे गिर गए हैं. वहीं पार्टी हाल फिलहाल के महीनों में “प्रबुद्ध सम्मेलनों” का आयोजनों करके एक बार फिर ब्राह्मण कार्ड खेल रही है.
प्रबुद्ध रैलियों पुराने दौर की ब्राह्मण भाईचारा बैठकों का नया वर्जन हैं. सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में उनके बेटे कपिल और दामाद परेश इन सम्मेलनों के जरिए विशेष तौर ब्राह्मण वर्ग को साधने का काम किया जा रहा है. ऐसा माना जाता है कि उत्तर प्रदेश के लगभग 12% मतदाता इसी समूह के हैं.
15 साल पहले अलग थे समीकरण
प्रबुद्ध सम्मेलनों की श्रृंखला का सबसे हालिया आयोजन मंगलवार 07 सितंबर 2021 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ. यह सबसे ज्यादा प्रचारित-प्रसारित सम्मेलन था. यहां खुद मायावती ने ब्राह्मणों के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया. ब्राह्मणों की सुरक्षा के सवाल पर उन्होंने विशेष तौर पर फोकस किया. इसके लिए उन्होंने वर्तमान बीजेपी प्रशासन की अव्यवस्था और अराजकता को जिम्मेदार ठहराया.
मायावती ने इस कार्यक्रम में विशेष तौर पर मुठभेड़ में मारे गए गैंगस्टर अमर दुबे की पत्नी खुशी दुबे की गिरफ्तारी का जिक्र किया. जिन्हें हाल ही में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया. उन्होंने कहा कि किशोर होने के बावजूद भी बेल देने से इनकार किया जा रहा है. ऐसे में उनकी पार्टी (BSP) इस मामले के खिलाफ कानूनी लड़ाई जारी रखने का फैसला किया है.
बसपा सूत्रों ने कहा कि ये बैठक इसलिए महत्वपूर्ण थी, क्योंकि यह काफी समय बाद बहनजी द्वारा संबोधित किया गया सबसे बड़ा सार्वजनिक कार्यक्रम था और इसे अगले साल के चुनाव के लिए पार्टी के अभियान की शुरुआत के रूप में देखा गया. हालांकि, कई कारण हैं कि आज ब्राह्मण कार्ड खेलना 15 साल पहले की तरह प्रभावी नहीं हो सकता है, जब उत्तर भारत अभी भी मंडल के बाद की अशांति से जूझ रहा था और उच्च जातियों, विशेष रूप से ब्राह्मणों को पिछड़ी जाति के राजनीतिक चुनौती से खतरा था.
उत्तरप्रदेश के ब्राह्मणों ने मायावती की ओर इसलिए रुख किया था क्यों उन्होंने देखा कि वे दलित और पिछड़ों के भारी समर्थन के उभरती हुई राजनीति सितारा थीं. वहीं ब्राह्मणों ने मुलायम सिंह के नेतृत्व वाले शक्तिशाली यादव वंश की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए मायावती का समर्थन किया था. क्योंकि वे मुलायम सिंह को एक बड़े खतरे के तौर पर देख रहे थे. विधानसभा में स्पष्ट बहुमत के साथ 2007 की चर्चित जीत से पहले, भाजपा-ब्राह्मण नेतृत्व ने मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी से लड़ने के लिए कांग्रेस के मौन समर्थन के साथ उनका साथ दिया था.
लेकिन आज की स्थिति पहले से पूरी तरह अलग है. मायावती और उनकी पार्टी का कद व महत्व अब पहले जैसे नहीं रहा. गैर-जाटव दलितों और अन्य निचली जातियों में बहनजी के बहुत से अनुयायी कम हो गए हैं. वहीं उनके मूल जाटव बेस का युवा वर्ग चंद्रशेखर आजाद और उनकी भीम आर्मी जैसे अधिक कट्टरपंथी और एक्टिव नेताओं की ओर झुक रहे हैं.
जहां तक मुसलमानों के बीच मायावती के समर्थन की बात है तो पांच साल पहले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान बहन जी खुलकर इस वर्ग के साथ थीं. तब मुसलमानों के बीच इनका समर्थन बढ़ा था, लेकिन अब यह कम हो गया है, क्योंकि इस वर्ग में अब यह धारणा बन गई है कि मायावती ने मुसलमानों के समर्थन को बीजेपी सरकार को बेच दिया है. तथ्य यह है कि सतीश मिश्रा ने राम लला के मंदिर में पूजा करने के बाद अयोध्या में पहला प्रबुद्ध सम्मेलन शुरू किया, जोकि निर्णायक क्षण था.
मायावती और बीजेपी के बीच सीक्रेट डील?
आज मायावती विजेता की तरह नहीं दिखती! हालांकि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का एक वर्ग भाजपा को सबक सिखाना चाहता है. क्योंकि योगी आदित्यनाथ ने खुले तौर पर ठाकुरों का पक्ष लिया है और पार्टी के मूल ब्राह्मण आधार को धोखा दिया है, लेकिन मायावती की ओर उनके झुकाव की संभावना नहीं है, क्योंकि वे अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी भाजपा को हराने में बेहतर मौका दे सकते हैं.
इसके अलावा, सतीश मिश्रा के नेतृत्व वाले प्रबुद्ध सम्मेलनों की वजह से बहनजी और दलितों के बीच बढ़ता मोहभंग और भी गहरा हो सकता है. उन्होंने कहा कि कई दलितों को लगता है कि मिश्रा ने बहनजी को कांशीराम द्वारा गठित बसपा की मूल दलित विचारधारा से भटकाने का काम किया है. काफी हद तक यह संभव है कि 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए मायावती और भाजपा के बीच कोई गुप्त समझौता हुआ हो.
मायावती को लेकर सवाल क्यों?
हाल ही में बीएसपी से निष्कासित 9 विधायक अखिलेश यादव से मिले. मुलाकात के बाद कहा कि उनके लिए एसपी में जाना एक विकल्प है. अब के पास सिर्फ 7 विधायक रह गए हैं. दरअसल, मायावती की राजनीतिक जान दलित वोटरों के हाथ में हैं. यूपी के 21% दलित वोटर जीत-हार में अहम भूमिका निभाते आए हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में ये वोटर मायावती को छोड़ बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे के साथ खुद को जोड़ते नजर आए हैं. यही नहीं पिछले कुछ वक्त से मायावती के पॉलिटिकल स्टैंड को लेकर भी वोटर कन्फ्यूज है.
मायावती जहां बीजेपी पर नर्म हैं वहीं समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पर आक्रामक. जबकि 2019 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ थीं, और इसी गठबंधन के सहारे जीरो (2014 लोकसभा चुनाव) से 10 सीट का सफर भी तय किया. मायावती पर कोरोना मिसमैनेजमेंट जैसे मुद्दों पर भी बीजेपी सरकार के खिलाफ चुप्पी बनाए रखने का आरोप लगता रहा है, वहीं राज्यसभा चुनाव के दौरान बीएसपी के कैंडिडेट को बीजेपी का समर्थन करना भी कई सवाल खड़े करता है.
यही नहीं राज्यसभा चुनाव के बाद मायावती ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह तक कह दिया कि अगर समाजवादी पार्टी को विधानसभा चुनाव में हराने के लिए बीजेपी के साथ जाना पड़े तो उनकी पार्टी इसके लिए भी तैयार है. इसके अलावा मुसलमान वोटर भी बहन जी के रुख से खुश नजर नहीं आ रहे हैं. राम मंदिर से लेकर तीन तलाक जैसे ढ़ेरों मुद्दे को लेकर ज्यादातर मुसलमान वोटर बीजेपी से अलग है, वहीं मायावती का इन मुद्दों पर साफ स्टैंड न लेना भी मुसलमान वोटर के मन में बीएसपी से दूरी बनाने के लिए काफी है.
The post भीम आर्मी और BSP-BJP- यह कैसी डील? appeared first on THOUGHT OF NATION.
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