- Advertisement -
HomeNewsअयोध्या किसी तारीख को पकड़कर नहीं बैठती

अयोध्या किसी तारीख को पकड़कर नहीं बैठती

- Advertisement -

बहते नीर की तरह समतल की तलाश करते रहना अयोध्या के स्वभाव में है और जो भी उसके आड़े आने की कोशिश करता है, वह उसे बरबस अपने प्रवाह में बहा ले जाती है.
कोई इसे अयोध्या का सौभाग्य कहे या दुर्भाग्य, इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकता कि आजादी के बाद से अब तक कम से कम पांच ऐसी तारीखें उसके हिस्से आई हैं, जिन्हें लेकर दावा किया गया कि उसका, और साथ ही देश का, उन तारीखों पहले और बाद का इतिहास अलग-अलग हिस्सों में बंट जायेगा.
कई हलकों में इन तिथियों को उसके नये इतिहास के निर्माण के प्रस्थान बिन्दु के तौर पर भी देखा गया. इनमें पहली तारीख है 22-23 दिसम्बर, 1949, दूसरी एक फरवरी, 1986, तीसरी 30 अक्टूबर-02 नवम्बर, 1990, चैथी 06 दिसम्बर, 1992 और पांचवीं नौ नवम्बर, 2019. यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि इन तारीखों पर अयोध्या में क्या-क्या हुआ क्योंकि जिनका अयोध्या से केवल बसों व रेलों की खिड़कियों भर का रिश्ता नहीं है, वे उन सारे घटनाक्रमों से अच्छी तरह वाकिफ हैं.
5 अगस्त की ही बात की जाये तो जो लोग उस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में फिर से भूमि पूजन करने वाले हैं, उनके समर्थक बताने से नहीं चूक रहे कि यह तारीख जम्मू-कश्मीर से संविधान की धारा 370 के उन्मूलन की वर्षगांठ है और भूमि पूजन के लिए इसका चयन संयोग भर नहीं है. इसके पीछे न सिर्फ अयोध्या बल्कि देश के नये इतिहास निर्माण की दिशा का स्पष्ट संकेत है.
लेकिन उनकी बेचारगी ऐसी है कि देखते ही बनती है. जिनको सुनाने या चिढ़ाने के लिए वे इस तरह की बातें कर रहे हैं, उन्होंने इन दिनों उनकी कोई भी जली-कटी न सुनने और कतई न चिढ़ने की कसम खा रखी है. अजब लोग हैं भाई. इतने लम्बे वक्त तक मस्जिद-मन्दिर विवाद का नासूर झेलने के बावजूद इनका विवादों से जी भरा नहीं लगता.
इसलिए मन्दिर बनाने जा रहे हैं तो भी उसके सदाशयतापूर्ण शुभारंभ की नहीं सोच रहे, उसे धारा 370 जैसे सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन विवादास्पद मामले से जोड़ रहे हैं. ताकि उसकी नींव में शिलाएं बाद में पड़ें, नफरत पहले पड़ जाये. ये समझते नहीं कि न अयोध्या कश्मीर है और न ही वे उसे कश्मीर बना सकते हैं.
यह अवध का हिस्सा है, उसकी गंगाजमुनी तहजीब का केन्द्र, जहां जुलाहे ने लोगों की जिन्दगियों की चादर ऐसी बुनी है कि कोई कितनी भी खींचतान कर ले, उसे उधेड़ नहीं सकता. जुलाहों ने उसे बुना ही कुछ ऐसे ताने-बाने से है. अब जब कोई झगड़ा नहीं रहा तो भी वे सुर्खियों का अपना खेल जारी रखना चाहते हैं. माहिर हैं वे इसमें. इसलिए धारा 370 को बीच में ले आये हैं. उसके बगैर मन्दिर बनाते तो सुर्खियां कैसे पाते?
प्रसंगवश, आप अयोध्या के मर्म से परिचित नहीं हैं तो आपको ये किसी तीन लोक से न्यारी नगरी की बातें लग सकती हैं. लेकिन क्या कीजिएगा, जिस अयोध्या में जानें कहां-कहां से अपनी-अपनी जिन्दगियों से थके-हारे आस्थाविगलित श्रद्धालु विषय-वासनाओं से मुक्ति वगैरह की लालसा लिए चले आते हैं, उसी में रहकर अपनी अजीबोगरीब वासनाओं की तृप्ति की जुगत करने और ‘जीवन से मोक्ष’ की चाह लेकर आये श्रद्धालुओं को ‘मोक्ष से जीवन’ की ओर घुमाने का द्रविड़ प्राणायाम करने वाले अयोध्यावासियों का मनोविज्ञान कुछ ऐसा ही है.
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद मंदिर निर्माण की कवायदों में पहली गड़बड़ी तो यही हुई कि सरकार ने उसके लिए जो ट्रस्ट बनाया, उससे जहां घट-घटव्यापी राम के सारे अनुयायियों का प्रतिनिधि होने की अपेक्षा की जाती थी, वह सारे हिन्दुओं का प्रतिनिधि भी नहीं सिद्ध हुआ. अब यह ट्रस्ट जो मंदिर बनाने जा रहा है, वह कितना भी भव्य क्यों न हो, तुलसी-कबीर, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया वगैरह के राम का तो नहीं सिद्ध होने वाला.
ट्रस्ट के समर्थक अभी से उसे भगवान राम की धर्मों व सम्प्रदायों की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाली अजातशत्रुता के विपरीत कभी राम मंदिर कह रहे हैं, कभी हिन्दू मंदिर और कभी राष्ट्र मंदिर! वे जिस तरह हिन्दू को ही राष्ट्र बता रहे हैं, उससे लगता है कि वह पतितपावन सीताराम का कम और भाजपा व संघ परिवार का मन्दिर ज्यादा होगा. मैं तो भगवान राम से प्रार्थना करूंगा कि वे ऐसे मंदिर को स्वीकार ही न करें.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए उसके स्थापनाकाल से ही हिन्दू और राष्ट्र एक दूसरे के पर्याय जैसे रहे हैं. सो उसके परिवार के संगठनों द्वारा राम मंदिर को राष्ट्र मंदिर कहे जाने में कोई नई बात नहीं है. नई है तो इससे जुड़ी उनकी बदनीयती. जिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में अयोध्या में विवादित ढांचे का ताला खुलवाया और 1989 में राम मंदिर का शिलान्यास कराया, उनका रंचमात्र भी योगदान स्वीकार नहीं करते. ऐसे में ये सारे हिन्दुओं के अलमबरदार या उनकी एकता के वाहक कैसे हो सकते हैं?
प्रधानमंत्री बनने के 6 सालों में नहीं आये तो अब ही सही. इससे कोई नई नजीर नहीं बनने वाली. उसे तो सोमनाथ मंदिर के सिलसिले में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद बना गये हैं. हां, देखने की बात यह होगी कि वे पहली बार अयोध्या आयेंगे तो सुर्खियों के परे की वह अयोध्या भी देख पायेंगे या नहीं, जो अभी भी सरकारी दीपोत्सव की जगर-मगर से परे उदासी को अपनी नीयति मानने को अभिशप्त है.
दिलचस्प यह कि जहां शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने भूमि पूजन के मुहूर्त को अशुभ बताते हुए उसे खारिज कर दिया और उसकी प्रक्रिया पर सवाल उठाया है, वहीं कई गैरसंघपरिवारी हिन्दूवादी संगठन मंदिर आन्दोलन के प्रति प्रतिबद्ध संतों की उपेक्षा को लेकर हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं. वे बलिदानी कारसेवकों और उनके परिजनों को भुला दिये जाने की भी शिकायत कर रहे हैं.
लेकिन सारी शिकायतों व सवालों से परे अयोध्या आश्वस्त दिखती है कि उसका समतल जीवन ऊबड़-खाबड़ नहीं होने जा रहा. कोई उसे ऊबड़-खाबड़ करने की कोशिश भी करेगा तो अपने स्वभाव के अनुसार वह नया समतल तलाश लेगी.
The post अयोध्या किसी तारीख को पकड़कर नहीं बैठती appeared first on THOUGHT OF NATION.

- Advertisement -
- Advertisement -
Stay Connected
16,985FansLike
2,458FollowersFollow
61,453SubscribersSubscribe
Must Read
- Advertisement -
Related News
- Advertisement -