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क्या बेबी रानी योगी आदित्यनाथ के लिए भी खतरे की घंटी हैं?

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाल फिलहाल पंजाब की सियासी हलचल का असर महसूस किया जा रहा है और ऐसा चरणजीत सिंह चन्नी के पंजाब का पहला दलित मुख्यमंत्री बनाये जाने से पहले से होता आ रहा है. जब मुख्यमंत्री रहते कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मलेरकोटला को पंजाब का नया जिला बनाया था तो योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को उसमें भारत-पाक बंटवारे जैसी राजनीति दिखायी पड़ी.
जब माफिया डॉन और बीएसपी विधायक मुख्तार अंसारी को यूपी पुलिस पंजाब से लाने की कोशिश में थी तो भी मुस्लिम तुष्टिकरण वाली राजनीति उछली थी. जिस दिन चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब में कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया यानी साफ हो गया कि पंजाब को पहला मुख्यमंत्री देने का क्रेडिट कांग्रेस को मिल रहा है, यूपी के मुख्यमंत्री वाराणसी में बीजेपी के अनुसूचित जाति मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हिस्सा ले रहे थे. कार्यकारिणी के मंच से योगी आदित्यनाथ ने विपक्षी नेताओं को निशाना भी बनाया, लेकिन अगले ही दिन जब ट्विटर पर दलित विमर्श शुरू किया तो बरबस हर किसी का ध्यान चला गया.
योगी आदित्यनाथ ने एक के बाद एक कई ट्वीट किये जिसमें वो बाबा साहेब आंबेडकर को याद कर रहे थे और केंद्र और अपनी सरकार के वे काम गिना रहे थे, जो दलितों के हित में माने जाने चाहिये. योगी की ही तरह मायावती (Mayawati) ने भी चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही कांग्रेस का चुनावी हथकंडा बता डाला. वैसे बीजेपी का भी दावा यही रहा है कि कांग्रेस के लिए दलित महज राजनीतिक मोहरा है. वैसे चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाये जाने की घोषणा होते ही बीजेपी के IT सेल चीफ अमित मालवीय ने उनके खिलाफ मीटू मुहिम के तहत लगाये गये आरोपों की याद दिलाने लगे थे. और तो और कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत ने तो बड़ी ही इमोशनल बात कह डाली.
उन्होंने कहा, मैं भगवान और मां गंगा से प्रार्थना करता हूं, मुझे मेरे जीते जी एक दलित के बेटे को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर देखने का अवसर मिले, हम इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करेंगे. हरीश रावत का बयान भी कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति की तरफ इशारे कर रहा है. क्योंकि वो कैपेंन की निगरानी तो कर ही रहे हैं, मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हैं. लेकिन उत्तराखंड में दलित मुख्यमंत्री को लेकर बयान तो अलग ही कहानी कह रहा है.
बेबी रानी मौर्य
योगी आदित्यनाथ के दलित एक्टिविज्म पर बहुत सोचने समझने की जरूरत नहीं पड़ती. अगर बीजेपी नेतृत्व ने विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बेबी रानी मौर्य (Baby Rani Maurya) को उत्तराखंड के राज्यपाल के पद से इस्तीफा नहीं दिलाया होता. बेबी रानी मौर्य और पश्चिम बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष रहे दिलीप घोष को जेपी नड्डा ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है. अव्वल तो बेबी रानी मौर्य के यूपी के खास हिस्सों में दलित वोट बैंक पर प्रभाव को देखते हुए चुनावों में बड़ी भूमिका के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन आलाकमान की नजर कहीं और लगती है.
जब अरविंद शर्मा रिटायर होन से पहले ही अचानक वीआरएस लेकर दिल्ली से लखनऊ पहुंचे और बीजेपी ने स्वतंत्र देव सिंह की मौजूदगी में सदस्यता दिला कर विधान परिषद भेज दिया, तब भी उनकी बड़ी भूमिका की ही बातें की जा रही थीं. बाद में ऐसी परिस्थितियां भी बनीं जब लगा कि ये बातें अफवाह तो नहीं हैं, लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन बातों को हकीकत भी नहीं बनने दिया. अब अगर बेबी रानी मौर्य को लेकर भी बीजेपी नेतृत्व की ऐसी ही कोई योजना हुई तो योगी आदित्यनाथ क्या करेंगे?
ये सब देखने में तो चुनाव नतीजों के बाद ही आएगा, लेकिन बेबी रानी मौर्य अभी से योगी आदित्यनाथ के लिए खतरे की घंटी लगने लगी हैं. यूपी में बीजेपी की सरकार के दौरान ठाकुरवाद के आरोपों से जूझने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अचानक इतने दलित प्रेमी क्यों हो गये? ये सवाल पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाये जाने के वक्त अचानक मार्केट में आये योगी आदित्यनाथ के ट्वीट के बाद पैदा हुआ है और धीरे धीरे ये मुद्दा हावी भी होने लगा है.
योगी आदित्यनाथ का दलित प्रेम तो 2018 के विधानसभा चुनावों में ही जगजाहिर हो गया था, जब भक्तिभाव में डूबे योगी आदित्यनाथ ने हनुमान को ही दलित बता डाला था, ये बात अलग है कि चुनाव नतीजों के जरिये हनुमान ने नाखुशी जाहिर कर दी थी. आम चुनाव से पहले राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित तीन राज्यों में बीजेपी का सत्ता से बेदखल हो जाने पर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी मोदी-शाह को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी. 2014 में केंद्र की सत्ता पर नये सिरे से काबिज होने के बाद ये 2015 के बिहार चुनाव की हार से भी बड़ा झटका था.
तब योगी आदित्यनाथ ने कांग्रेस नेता कमलनाथ को निशाना बनाते हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुकाबले को बजरंगबली और अली की लड़ाई के तौर पर पेश किया था. कहे भी थे, आपको आपके अली मुबारक हों, हमारे लिए बजरंग बली पर्याप्त हैं और राजस्थान में अलवर के मालखेड़ा की रैली में तो योगी आदित्यनाथ ने हनुमान की तारीफ करते करते उनको दलित समुदाय का ही साबित करने की कोशिश कर डाली, बजरंग बली ऐसे लोक देवता हैं जो स्वयं वनवासी हैं… गिरवासी हैं… दलित हैं… वंचित हैं.
पंजाब में जिस दिन चरणजीत सिंह चन्नी बधाइयां स्वीकार कर रहे थे, ट्विटर पर योगी आदित्यनाथ बाबा साहेब बीआर अंबेडकर को याद कर रहे थे. ठीक एक दिन पहले योगी आदित्यनाथ अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए दावा किया कि 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 350 से ज्यादा सीटें जीतेगी. योगी आदित्यनाथ को आने वाले चुनाव में टक्कर देते महसूस किये जा रहे समाजवादी पार्टी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो 400 सीटें जीतने का दावा किया है. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 403 में से 312 सीटें मिली थीं.
हो सकता है, योगी आदित्यनाथ के ट्वीट चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का सीएम बनाने के श्रेय के साथ यूपी में प्रियंका गांधी वाड्रा को लेकर दलितों के बीच संभावित किसी धारणा के पनपने से पहले वैक्सीन जैसे ही हों और ये भी हो सकता है कि मायावती से दलितों के वोट छीनने की बीजेपी की रणनीति का भी हिस्सा हो, लेकिन योगी के ट्वीट उनके नये डर की आशंका की तरफ भी इशारा कर रहे हैं. असल में बीजेपी जिस तरह बेबी रानी मौर्य को धीरे धीरे यूपी की चुनावी राजनीति के मैदान में खड़ा कर रही है, योगी आदित्यनाथ का बेबी रानी पर भी अरविंद शर्मा की तरह शक होना स्वाभाविक लगता है.
बेबी रानी से योगी को कैसा खतरा?
मई, 2019 के आम चुनाव के बाद अगस्त में जब योगी आदित्यनाथ ने मंत्रिमंडल में फेरबदल की तो आगरा से गिरिराज सिंह धर्मेश को कैबिनेट में शामिल किया था. ये भी बीजेपी के दलित वोट बैंक के बीच घुसपैठ बनाने की कोशिश का हिस्सा ही लगता है. भले ही राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद यूपी के निजी यात्रा पर जाते हों या सरकारी यात्रा पर अयोध्या तक, लेकिन जैसी तेजी हाल फिलहाल दिखायी पड़ी है, वैसा तो अब तक नहीं देखा गया. व्यवस्था की बात अपनी जगह है लेकिन राजनीति की बात आएगी को बीजेपी भला फायदा उठाने से कहां चूकने वाली है.
वैसे भी रिपोर्ट से मालूम होता है कि पिछले 10 साल के दौरान दलित वोटों में बीजेपी की पैठ तीन गुणा हो गया है. बताते हैं कि 2009 तक बीजेपी के पास जो 10-12 फीसदी वोट थे, 2014 में 24 फीसदी और 2019 में 34 फीसदी हो चुके थे – ट्रैक रिकॉर्ड तो यही बता रहा है कि अगले के चुनाव तक न भी बढ़े तो घटने वाला तो है नहीं. आगरा की मेयर रह चुकीं बेबी रानी मौर्य को उत्तराखंड के राज भवन से बीजेपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तो अभी बनाया गया है, लेकिन जून, 2021 में ही आगरा के ही पूर्व मंत्री डॉक्टर राम बाबू हरित को यूपी एससी-एसटी कमीशन का अध्यक्ष बनाया गया था – ये बता रहा है कि बीजेपी को यूपी के दलित वोटों की कितनी फिक्र हो चली है.
लेकिन राज्यपाल बन जाने के बाद बेबी रानी मौर्य का कद काफी बढ़ चुका है – और यही वजह है कि अरविंद शर्मा की ही तरफ बेबी रानी मौर्य की बढ़त योगी आदित्यनाथ के लिए आने वाले दिनों में नुकसानदेह साबित हो सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फेवरेट अफसर रहे अरविंद शर्मा के मामले में लगता है केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ज्यादा दबाव इसलिए भी नहीं बना पाया क्योंकि बेबी रानी मौर्य की तरह उनका बड़े वोट बैंक का मामला नहीं था. हालांकि, चुनावी भूमिका के हिसाब से देखें तो भूमिहार वोट भले कम हो, लेकिन अमित शाह के संपर्क फॉर समर्थन जैसे अभियान को सवर्ण वोट इसलिए भी सूट करता है. क्योंकि वो प्रचार प्रसार के साधनों से समृद्ध है और संख्या में कम होने के बावजूद बीजेपी के लिए परेप्शन मैनेजमेंट का काम करता है.
लेकिन ये तो बिलकुल नहीं लगता कि बीजेपी नेतृत्व बेबी रानी मौर्या के मामले में अगर अरविंद शर्मा जैसी स्थिति बनी तो पीछे हटेगा, वैसे भी जब तक ये सब होगा चुनाव नतीजे आ चुके होंगे – और असली जोरआजमाइश भी तभी समझ में भी आ सकेगी. बेबी रानी मौर्य को भी बीजेपी में उपाध्यक्ष बनाया गया है. जैसे उनके साथ ही पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष रहे दिलीप घोष को भी. कह सकते हैं, जैसे अरविंद शर्मा को यूपी बीजेपी का उपाध्यक्ष बनाया जाना भी वैसा ही लगता है – लेकिन ये तीनों ही मामले बिलकुल अलग अलग हैं क्योंकि तीनों ही नेताओं को संगठन में अलग अलग परिस्थियों में समाहित किया गया है.
दिलीप घोष को पश्चिम बंगाल बीजेपी में जारी झगड़े के चलते हटाया गया है, जबकि अरविंद शर्मा को जब योगी सरकार में सेट नहीं किया जा सका तो यूपी में ही संगठन में भेज दिया गया. उपाध्यक्ष पद पर नजर डालें तो 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद हारे हुए मुख्यमंत्रियों राजस्थान से वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश से शिवराज सिंह चौहान को भी उपाध्यक्ष बनाया गया था. बेबी रानी मौर्य का मामला बिलकुल अलग लगता है. आमतौर पर बीजेपी में राजभवन भेजा जाना किसी भी नेता के लिए मार्गदर्शक मंडल के लिए मानसिक तौर पर तैयार होने का इन्क्युबेशन पीरियड जैसा होता है. क्योंकि उसके आगे की सड़क पर आगे राजनीति के खतरनाक मोड़ जैसा ही साइनबोर्ड नजर आता है.
बेबी रानी मौर्य का मामला इसीलिए अलग लगता है क्योंकि उनको राजभवन से बुलाकर चुनाव मैदान में उतारने की तैयारी के संकेत दिये जा रहे हैं – और इसके लिए चुनाव लड़ना कोई जरूरी शर्त भी नहीं है. बेबी रानी मौर्या को जिस तरीके से प्रोजेक्ट किया जा रहा है, उससे तो साफ है कि आगरा और अलीगढ़ जैसे इलाकों से मायावती के वर्चस्व को खत्म करने का बीजेपी का इरादा है. हाल फिलहाल ये भी देखने में आया है कि युवा दलित नेता चंद्रशेखर आजाद रावण भी आगरा और आसपास के इलाकों में आजाद समाज पार्टी की पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं, हालांकि, सक्रियता वो भी पश्चिम यूपी में ज्यादा दिखाते हैं.
फर्ज कीजिये बेबी रानी मौर्या की वजह से बीजेपी को दलित वोटों का फायदा होता है और केशव प्रसाद मौर्य की बदौलत ओबीसी वोटों का तो दबाव किसे झेलना पड़ेगा – योगी आदित्यनाथ को ही तो. ऐसा लगता है जैसे बीजेपी नेतृत्व ने बेबी रानी मौर्या को उपाध्यक्ष बना कर योगी आदित्यनाथ को गुमराह करने की कोशिश की है. जैसे योगी आदित्यनाथ अमित शाह के आगे फैल गये थे, केशव प्रसाद मौर्य ने भी तो धीरे से जोर का झटका देने की कोशिश की ही थी. वो तो संघ के फौरन हरकत में आने के बाद बीच बचाव से मामला खत्म किया गया.
वैसे भी 2017 में केशव प्रसाद मौर्या भी तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे ही. कहीं संयोग वश या प्रयोगों की बदौलत बेबी रानी मौर्या और केशव प्रसाद मौर्य भारी पड़े तो कालांतर में योगी आदित्यनाथ को भी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद पर प्रमोशन दिये जाने की संभावना तो प्रबल ही लगती है. है कि नहीं?
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