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योगी के नेतृत्व में चुनाव लड़े जाने का नुकसान और फायदा

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उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) से पहले सूबे की सियासी आबोहवा में इन दिनों एक अजीब सी तपिश महसूस की जा रही है. सत्तारुढ़ दल भाजपा में बैठकों और मुलाकातों का एक लंबा सिलसिला चल रहा है. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश का सियासी महत्व भाजपा को बहुत अच्छे से पता है.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) कहते नजर आ रहे हैं कि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा दो-तिहाई बहुमत से जीत हासिल करेगी. खबर ये भी है कि मिशन 2022 को अंजाम तक पहुंचाने के लिए भाजपा अपने स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ के नाम के साथ ही जनता के बीच पहुंचेगी. पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों को देखते हुए आसानी से कहा जा सकता है कि योगी के नेतृत्व में यूपी चुनाव लड़े जाने का फायदा भी है और नुकसान भी.
योगी आदित्यनाथ से भाजपा को क्या फायदा मिल सकता है?
उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास नेताओं और राजनेताओं की कमी नही है. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा के पास उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के विकल्प के तौर पर दर्जनों नेता हो सकते हैं. मनोज सिन्हा, केशव प्रसाद मौर्य, राजनाथ सिंह समेत भाजपा के पास नामों की एक लंबी फेहरिस्त है, लेकिन इनमें से एक भी ‘जननेता’ यानी मास लीडर नहीं है. ये सभी नेता एक खास जाति की राजनीति के समीकरणों में फिट बैठते हैं. जातीय समीकरणों की राजनीति के मशहूर उत्तर प्रदेश में लोगों को जाति से ऊपर हिंदूत्व के नाम पर एकजुट करने में शायद ही ये नेता सफल रह सकें.
बीते सालों में योगी आदित्यनाथ ने कल्याण सिंह की ‘हिंदू हृदय सम्राट’ वाली छवि को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया है. योगी आदित्यनाथ अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में संन्यासी से राजनेता और अब जननेता बन चुके हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा के स्टार प्रचारकों की लिस्ट में जो सबसे पहला नाम सामने आता है वो योगी आदित्यनाथ का है. देश के किसी भी राज्य में चुनाव होने पर वहां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का दौरा तय माना जाता है. योगी आदित्यनाथ की सियासत की धुरी गोरखपुर में स्थित गोरखनाथ मठ के इर्द-गिर्द घूमती है. गोरखनाथ मठ की परंपरा में जातीय बंधन मायने नहीं रखते हैं. यही वजह है कि जाति से ठाकुर होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ इस मठ के महंत हैं.
यूपी की सियासत में धर्म और जाति दो सबसे बड़े फैक्टर हैं. योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की छवि लोगों के बीच एक संन्यासी के साथ ही तेज-तर्रार प्रशासक की है. प्रदेश में अपराधियों के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाने वाले योगी आदित्यनाथ की ‘हिंदुत्व’ के मुद्दे पर भी यही रणनीति रही है. हालांकि, इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की UP में वर्षों से जारी सोशल इंजीनियरिंग का भी अहम रोल है. सूबे में योगी आदित्यनाथ के रूप में लोगों के सामने एक ‘जातिविहीन’ चेहरा भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगा. योगी आदित्यनाथ के सहारे भाजपा को यूपी में जाति को किनारे रखते हुए हिंदू वोटों को एकसाथ लाने का मौका मिलेगा.
भाजपा की सियासत के केंद्र में दशकों से राम मंदिर का मुद्दा अहम रहा है. सुप्रीम कोर्ट से फैसले के बाद यह भाजपा के लिए ‘तुरुप का पत्ता’ बन गया है. राम मंदिर निर्माण की नींव रख दी गई है. भाजपा ने देशभर में समर्पण निधि अभियान के जरिये लोगों की धार्मिक चेतना में इस मुद्दे को ‘सुसुप्तावस्था’ में जाने से रोकने का सफल प्रयास भी कर दिखाया है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के सियासी माहौल को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला मुद्दा राम मंदिर हो सकता है. योगी आदित्यनाथ की ‘संन्यासी’ छवि से राम मंदिर के मुद्दे को और धार मिलेगी.
यूपी में हर आयु वर्ग के लोगों और खासकर बुजुर्गों को राम मंदिर निर्माण का मुद्दा सबसे अधिक प्रभावित करेगा. वहीं, योगी आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी के जरिये युवाओं के बीच में एक खास जगह बनाई है. योगी के इस निजी संगठन में जातीय व्यवस्था को किनारे रखकर युवाओं को हिंदुत्व के नाम पर बढ़ावा दिया जाता है. विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की तरह ही हिंदू युवा वाहिनी के जरिये हिंदू केंद्रित राजनीति का फलसफा आसानी से हासिल हो जाता है.
भाजपा को हो सकता है ये नुकसान
वैसे तो यह ‘न भूतो न भविष्यति:’ वाली परिकल्पना कही जा सकती है. लेकिन, उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस तरह के सियासी गठबंधन होते रहे हैं. भाजपा भी बहुजन समाज पार्टी के साथ ‘असफल’ ही सही, लेकिन कोशिश कर चुकी है. समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के साथ क्रमश: विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में इस रणनीति को टेस्ट कर चुकी है. सूबे के सारे राजनीतिक दलों को ये बात पता है कि यूपी में भाजपा को हराने के लिए सामूहिक प्रयास की ही जरूरत पड़ेगी.
राज्य में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की वर्तमान स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर उन्हें एकजुट होने का मौका मिलेगा, तो वह शायद ही इस विकल्प से किनारा करेंगे. योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने पर इस बात का खतरा बनने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. वैसे, महाराष्ट्र में विपरीत राजनीतिक ध्रुवों वाली तीन पार्टियों की महाविकास आघाड़ी सरकार निर्बाध रूप से चल रही है. इस स्थिति में सत्ता में वापसी के लिए अगर समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा एक ही मंच पर आ जाएं, तो शायद ही लोग चौंकेंगे.
योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने पर मुस्लिम वोटों के एकतरफा हो जाने का खतरा है. भाजपा के लिए यह सबसे बड़ा नकुसान कहा जा सकता है. भाजपा की हिंदुत्व की उग्र रणनीति की वजह से ही पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट एकमुश्त सीएम ममता बनर्जी के खाते में गिरे थे. पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की चिंता बढ़ा दी है. यूपी में मुस्लिम वोटों की संख्या करीब 20 फीसदी के आसपास है. 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में करीब 130 सीटों पर मुस्लिम वोट चुनावी नतीजों में अहम भूमिका निभाते हैं. कांग्रेस की ओर से सॉफ्ट हिंदुत्व के साथ ही बड़े स्तर पर मुस्लिम वोटों को साधने की कवायद में जुटी हुई है.
सलमान खुर्शीद, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, इमरान मसूद और इमरान प्रतापगढ़ी जैसे नेताओं के सहारे और डॉ. कफील खान के मुद्दे को लगातार उछालकर कांग्रेस लगातार मुस्लिमों के बीच पैंठ बनाने की कोशिश कर रही है. बसपा ने भी पार्टीविरोधी गतिविधियों में शामिल लालजी वर्मा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को विधानमंडल दल का नेता नियुक्त किया है. समाजवादी पार्टी के नेताओं एसटी हसन और शफीकुर रहमान बर्क ने बयानों में कोरोना की आपदा को शरीयत से छेड़छाड़ की वजह बताया है. इसे भी मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से जोड़कर देखा जा रहा है.
योगी की ब्राह्मणविरोधी छवि
‘अजय सिंह बिष्ट’. योगी बनने से पहले योगी आदित्यनाथ का यही नाम था. यूपी का सीएम बनते ही विपक्षी दलों ने उन पर इस नाम के सहारे केवल ठाकुरों को बढ़ावा देने के आरोप लगाना शुरू कर दिया था. वहीं, आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मणविरोधी बताते हुए उनके कार्यकाल में हुईं 500 से ज्यादा ब्राह्मणों की हत्याओं का दोषी बताया था. संजय सिंह ने यहां तक दावा किया था कि 20 ब्राह्मणों को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ों में मार गिराया. राजनीतिक दलों आरोप लगाते रहे हैं कि योगी सरकार में पार्टी के ही 58 ब्राह्मण विधायकों की सुनी नहीं जाती है.
वहीं, कानपुर में 8 पुलिसवालों की हत्या करने वाले दुर्दांत अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के खिलाफ ब्राह्मणविरोधी होने की चर्चाओं को खूब बल मिला था. भदोही के ज्ञानपुर से विधायक विजय मिश्रा ने तो ब्राह्मण होने की वजह से अपना एनकाउंटर होने की बात तक कह दी थी. पुलिस-प्रशासन में भी ठाकुरों का वर्चस्व बढ़ाने के आरोप सीएम योगी पर लगते रहे हैं. कहना गलत नहीं होगा कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर भाजपा को ब्राह्मणविरोधी छवि से काफी नुकसान होने की संभावना है.
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