- 2014में भजपा ने जीती थी सभी25 सीटें
- भाजपा ने 6 माह पहले बनी आरएलपी के लिए नागौर सीट छोड़ी,24 सीटों पर बीजेपी की चुनौती
- कांग्रेस अपने दम पर सभी 25 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
आजकल राजस्थान / राजस्थान की सियासी जमीन पर इस बार चुनावी फिजा बदली हुई सी हैं। राजनीतिक निष्ठाएं और प्रतिबद्धताएं भी बदली-बदली सी हैं। राष्ट्रवाद का भावनात्मक उभार जमीन पर दिखता तो है मगर उसकी दिशा साफ दिखाई नहीं देती है। पहले चरण की 13 और दूसरे चरण की 12 सीटों का आज की स्थिति में आकलन यही निकलकर आता है कि 9 से 10 सीटें कांग्रेस को जाती दिख रही हैं। भाजपा को 14 से 15सीट जबकि बांसवाड़ा में bpt ने दोनों दलों को उलझा रखा है। भाजपा भारी तो है मगर 2014 के मुकाबले 2019 में उसे बड़ा नुकसान हो रहा है। दोनों ही दलों के बड़े नेता अब राजस्थान में हैं, वे मतदाताओं का मन किधर घुमाएंगे ये देखना बाकी है।
कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों के कार्यकर्ता निजी तौर पर मानते हैं कि राजस्थान में लड़ाई मोदी वर्सेज ऑल है। राजस्थान में पहली बार नए सियासी समीकरण जुड़ रहे हैं। मसलन- नागौर में 6 मई को मतदान होना है। इस सीट का सबसे दिलचस्प पहलू है कि राज्य की 25 में से यह एकमात्र सीट है, जिसे भाजपा ने 30 साल बाद छह महीने पहले अस्तित्व में आए क्षेत्रीय दल (आरएलपी) के लिए छोड़ दिया है।
नागौर ऐसी सीट है, जहां जातियों की भावनात्मक लहर ही जीत का आधार बनती रही है। इसी आधार पर गठबंधन हुआ है इसलिए गठबंधन का उम्मीदवार अभी आगे चल रहा है। इस सीट पर भी जातिगत समीकरण उलझ रहे हैं।परम्परागत बीजेपी का वोट बैंक रहे राजपूत समुदाय गठबंधन को सीट दिये जाने से खुश नहीं है । सीकर दुल्हन केस से उपजे तनाव ने आग में घी डालने का काम किया है।कुछ कांग्रेस नेताओं में ज्योति से नाखुशी की भी चर्चा है।दूसरे चरण की सभी 12 सीटें जातियों के मजबूत किलों से घिरी हुई हैं। राज्य की 4 सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं। ये सीटें हैं- बीकानेर, श्रीगंगानगर, भरतपुर, करौली-धौलपुर। इन चारों पर वही जीतेगा जो जातीय सियासत के समीकरणों के दांव ठीक से लगाएगा। करीब डेढ़ दशक से जातिवाद की प्रयोगशाला बनी एसटी आरक्षित सीट दौसा में भी 6 मई को वोट डलेंगे। यह अकेली सीट है, जहां कांग्रेस और भाजपा दोनों ने महिला प्रत्याशी उतारे हैं।
बीजेपी से जसकौर मीणा और कांग्रेस से सविता मीणा आमने-सामने हैं। निर्दलीय अंजु धानका ने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। यह सीट इसलिए अहम है, क्योंकि यह दो जातीय दिग्गज किराेड़ी बैसला और किरोड़ी मीणा का प्रभाव क्षेत्र है। दोनों इस बार भाजपा में हैं। देखना होगा कि जातीय किलों की दीवारों की परतों से खींचकर ये दोनों नेता भाजपा को जीत के दरवाजे तक ला पाते हैं या नहीं। एससी और एसटी की इन पांचों सीटों पर जैसे रूझान मिल रहे हैं उससे यही लगता है कि यहां हार-जीत का अंतर उन्नीस-बीस का ही रहेगा। यहां कोई लहर नहीं है। राजस्थान का जाटलैंड कहा जाने वाला शेखावाटी भी दूसरे चरण में ही अपना नेतृत्व चुनेगा।झुंझनूं में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए आसान नहीं है।सीकर में कांग्रेस व चुरू में बीजेपी भारी लग रही है।
शीर्ष नेताओं और कार्यकर्ताओं में आपसी कलह दलों को परेशान कर रही है। बीजेपी के सामने 2014 का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती है जबकि कांग्रेस को यह साबित करना है कि राज्य में उसकी सरकार है। सीकर से भाजपा ने सांसद सुमेधानंद को फिर टिकट दिया है। सामने दिग्गज जाट नेता कांग्रेस के सुभाष महरिया हैं। शेखावटी में भी धर्म-जाति- भावनाओं-संवेदनाओं की ऐसी खिचड़ी पकी हुई है कि दिग्गज जाट नेता भी डरे हुए हैं। भाजपा ने अलवर में भी धार्मिक ध्रुवीकरण का पांसा फेंका है। यहां बाबा बालकनाथ का मुकाबला कांग्रेस के जितेंद्र सिंह से है। दोनों ही जीत के लिए स्थानीय मुहावरों और जुमलों का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन सियासी खेमेबंदी से दोनों ही परेशान हैं।बसपा प्रत्याशी की वजह से अलवर में मुकाबला बराबरी का लग रहा है।
जयपुर ग्रामीण सीट पर चुनावी फिज़ा अलग है। मुकाबला दो पूर्व ऑलिंपियन्स में है। ओलिंपिक निशानेबाजी के सिल्वर मेडल विजेता व केंद्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ का मुकाबला दूसरी ओलिंपियन कांग्रेस की कृष्णा पूनिया से है। राज्यवर्धन पुराना चेहरा हैं, छवि भी अच्छी है। सीट पर भाजपा की पकड़ भी मजबूत है लेकिन कांग्रेस ने कृष्णा को उतारकर सियासी खेल रोचक बना दिया है। जयपुर ग्रामीण जाट बहुल सीट है।सीकर विवाद का असर यहां भी दिख रहा है । जयपुर शहर की सीट पर कांग्रेस ने पहली बार एक महिला पूर्व मेयर ज्योति खंडेलवाल को टिकट दिया है, जिनका मुकाबला पिछले चुनाव में राजस्थान में सबसे ज्यादा वोटों से जीते भाजपा के रामचरण बोहरा से है। जयपुर सीट भाजपा के कब्जे में रही है। संघ के पूरे कामकाज का जयपुर केंद्रबिंदु भी है। इस सीट को भाजपा से छीनना आसान नहीं है। यहां विधानसभा चुनाव में 8 में से 5 सीटें कांग्रेस ने जीती थी। किंतु वोट शेयरिंग में भाजपा कांग्रेस से आगे थी।
भाजपा सत्ता का स्वयंवर जीतने के लिए सिर्फ मोदी पर निर्भर है। प्रत्याशी व समर्थक इस चुनाव को केवल हर सीट पर मोदी बनाम अन्य करना चाहते हैं पर पूर्व सांसदों की अकर्मण्यता भी दिख रही है। ऐसा लगता है कि जैसे यह भाजपा का नहीं मोदी का चुनाव है। कांग्रेस कभी आक्रामक तो कभी रक्षात्मक दिखती है। मुख्यमंत्री गहलोत हमलावर होते हुए अपनी पारंपरिक और विनम्र छवि को हर माध्यम से बेच रहे हैं। उनकी चुनौती इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में जीत के आंकड़ों की पूरी टाइमलाइन उनके खिलाफ थी। जाहिर है कि इस बार भी उनके चेहरे की भावनात्मक लहर ही जीत-हार का आधार बनेगी। हालांकि मतदाताओं में आक्रोश और आकांक्षाएं भाजपा- कांग्रेस दोनों से है।